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________________ प्रस्ताव ३ : शत्रुमर्दन आदि का अान्तरिक आह्लाद २६६ की वन्दना को, पूजा की, स्नात्र महोत्सव किया और कल्पवृक्ष जैसे प्राचार्य प्रबोधनरति को मुदित मन से वन्दन किया और संसार से मुक्त करे ऐसे भगवद् धर्म को प्राप्त किया। मनीषी जैसे महापुरुष से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। इसने तो सचमुच में हमारे हृदय को उत्सवमय बना दिया है। इसमें नवीनता भी क्या है ? महा भाग्यशालो पुरुष तो सर्वदा पर-प्राणियों के संतोष को बढाने वाले ही होते हैं। उनका तो एक ही कार्य है कि अन्य मनुष्यों में प्रीति उत्पन्न करे । पुण्यवान प्राणियों के लिये उनका ऐसा करना तो योग्य ही है, पर मेरे जैसे के लिये तो यह नवीनता ही है, नहीं तो 'कहाँ चाण्डाल और कहाँ तिलों का भण्डार' ? अर्थात् कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ? इस प्रकार हे मित्र वत्सल ! मुझे तो आपने कल्याण-माला की परम्परा प्राप्त करा हो दी है। लोक /जगत् में ऐसी कहावत है कि 'मन्त्री सर्वदा राजा का हित करता है' आपने वास्तव में अपना मन्त्रीत्व सार्थक किया है। आपके नाम के अनुसार ही प्राप वस्तुतः सुबुद्धि ही हैं । आप वास्तव में धन्यवाद के पात्र हैं। सुबुद्धि मन्त्री बोला- महाराज ! आप ऐसा न कहें। हमारे जैसों का तो जीवन हो आपके पुण्य प्रताप से चलता है । सेवक को आप इतना गौरव प्रदान कर रहे हैं वह योग्य नहीं है। ऐसे सुन्दर संयोग आपको प्राप्त कराने वाला मैं कौन हूँ ? आप स्वयं ही ऐसी कल्याण-परम्परा को प्राप्त करने के योग्य हैं । निर्मल आकाश में द्य तिमान सुन्दर नक्षत्रों को देखकर किसी को आश्चर्य नहीं होता। बादल रहित आकाश में तारे चमकें तो इसमें आश्चर्य क्या ? यह तो आकाश की निर्मलता का प्रताप है, तारों का नहीं । मनीषी महाराज ! प्रभु की आप पर कृपा हुई है अतः अभी प्राप्त कल्याण-परम्परा तो उसका एक अंश मात्र है। आपके हृदय रूपी निर्मल आकाश में अनन्त ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होने वाला है, इसे तो अभी आप उसका अरुणोदय ही समझे। केवलज्ञान रूपी सूर्योदय के परिणामस्वरूप आपको परमपद- के कल्पनातीत आनन्द का योग प्राप्त होगा, उसको सूचित करने के लिये अभी तो आपको केवल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई है, उसी के फलस्वरुप आपको इतना हार्दिक प्रमोद उत्पन्न हो रहा है, यह तो अभी प्रारम्भ मात्र है । शत्रुमर्दन-सचमुच, नाथ ! मुझ पर आपकी बड़ी कृपा हुई। आपके कथन में मुझे कोई सन्देह नहीं है। आपके अनुचर को कौन सी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती? फिर सुबूद्धि मन्त्री को लक्ष्य कर कहा-मन्त्रो देखो तो, यह महात्मा मनीषो अभी आज ही तो सच्चा उपदेश प्राप्त कर प्रबुद्ध (जाग्रत) हुआ है, फिर भी इसमें कितना विवेक और गहन विचार आ गये हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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