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उपमिति भव-प्रपंच कथा
पश्चात् मनीषी ने हीरे पन्न े, इन्द्रनील, वेडूर्य, मारक प्रादि जटित रत्नों की कांति से सुशोभित सुन्दर बावडी के निर्मल जल से स्नान किया । सर्प की कांचुली जैसे पारदर्शी सुन्दर श्वेत वस्त्र पहन कर मनीषी मनोहर देवभवन में गया । [१६-२४] देवभवन / जिन मन्दिर को सुबुद्धि मंत्री ने विशेष रूप से सजाया था जो देखते ही मन को आकर्षित करता था । मनीषी बहुत समय पूर्व ही सन्मार्ग पर ग्रा गया था, परमार्थ दृष्टि से उसके हृदय में जिनेश्वर का स्वरूप आलेखित हो चुका था, फिर भी उस दिन प्रबोधनरति प्राचार्य के उपदेश से उसे वीतराग स्वरूप का विशेष दिग्दर्शन हुआ था जिससे वह रागद्व ेष और मोह के विष को अपहरण करने में प्रवीण भगवान् के देहस्थ और परब्रह्म के स्वरूप पर स्थिर चित्त से अधिकाधिक विचार करने लगा ।
जिनमन्दिर में द्रव्य और भाव पूजा के पश्चात् कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मनीषी भोजन मण्डप में आया । वहाँ पहिले से ही सुन्दर सरस भोजन की सर्व सामग्री तैयार थी । मन और जिह्वा को श्रानन्द देने वाले अनेक प्रकार के व्यंजन पदार्थ परोस कर रखे गये थे । राजा शत्रुमर्दन मनीषी को मनीषी राजा को प्रसन्न करने के लिये उनके अनुरोध पर स्वयं पदार्थों का भोजन करने लगा, किन्तु भोज्य पदार्थों में किसी प्रीति उसे तनिक भी नहीं थी जिससे स्वस्थता वृद्धि को प्राप्त हो रही थी । भोज कर मनीषी खड़ा हुआ ।
बताते गये और
के
ग्रहण करने योग्य प्रकार का राग या
पश्चात् प्रत्यन्त आग्रह पूर्वक उसे पंच सुगन्धित मसालों से युक्त पान दिया गया । उसके शरीर पर चन्दन कस्तूरी केसर का विलेपन किया गया, उसे सुन्दर आभूषण और बहुमूल्य वस्त्र पहनाये गये, गले में सुगन्धित पुष्प मालायें पहनाई गई, जिनकी सुगन्ध से भंवरे भी प्राकर्षित होने लगे । फिर राजा ने मनीषी को महा मूल्यवान सिंहासन पर बिठाया ।
पश्चात् अनेक सामन्तगरण आकर उसके चरणों में नमन करने लगे । उनके मुकुट में जटित रत्नों की प्रभा से उसके पैर लालिमायुक्त दिखने लगे । बदी और भाट स्तुति गान करने लगे । इस प्रकार मनीषी का योग्य आदर सम्मान करने के पश्चात् राजा शत्रुमर्दन अपने मन में अत्यन्त हर्षित होते हुए सुबुद्धि मन्त्रों से कहने लगे ।
राजा द्वारा सुबुद्धि का अभिनन्दन
मित्र ! आज हमें यह कल्याणकारी अवसर प्रापके प्रताप से ही प्राप्त हुआ है क्योंकि आचार्य को वन्दना करने के लिये आपने ही मुझे प्रेरित किया था । आपके कारण ही तीनों भवनों को आनन्द देने वाले भगवान् के मैंने दर्शन किये और भक्तिपूर्वक प्रमुदित मन से मैंने त्रैलोक्यनाथ प्रादीश्वर भगवान् * पृष्ठ २१
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