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________________ प्रस्ताव ३ : शत्रुमर्दन आदि का प्रान्तरिक आह्लाद २६५ उद्भासित होने लगा । मन्त्रीगणों ने मनीषी को वस्त्राभूषणों से ऐसा अलंकृत किया कि वह इन्द्र के समान प्रतीत होने लगा। मनीषी के समस्त बाह्य विकार शान्त हो गये और मन पूर्णतया पवित्र हो गया। यह हमारे में से सर्वश्रेष्ठ है, महाभाग्यशाली है, यह हमारा नायक है, पूजनीय है, इसने अतिदुष्कर भागवती दीक्षा लेने का निर्णय किया है' कहते हुए शत्रुमर्दन राजा ने उसके हाथ में उत्तम तोर्थों के जल से पूरित, स्वर्ण निर्मित, मनोहर श्रेष्ठ धर्म-तत्त्व का सार रूप, मुनियों के मानस के समान निर्मल, गोशीर्ष चन्दन से विलिप्त, दिव्य कर लों से आच्छादित मुख वाला, चारों और सुन्दर चन्दन के हस्तलेप से अचित और भवच्छेदक दिव्यकुम्भ (कनक कलश) जिनेन्द्र भगवान् का सर्वप्रथम अभिषेक कराने के लिये दिया । अत्यन्त प्रानन्द व रोमांचपर्ण मन से भक्तिभाव सहित राजा शत्रमर्दन ने दूसरा कलश अपने हाथ में लिया । मध्यमबुद्धि और राजपुत्र सुलोचन भी भगवान् की स्नात्र पूजा करने में संलग्न हुए । मदनकन्दली चन्द्र के समान अत्यन्त स्वच्छ चामर ग्रहण कर भगवान् के सन्मुख खड़ी रही। उसी के साथ पद्मावती नामक एक अन्य सुरूपा स्त्री दूसरी ओर चामर लेकर खड़ी रही। आनन्द वर्धक पवित्र दृश्य से सुबूद्धि मन्त्री भी मुखवस्त्र बांधकर हाथ में धूपदान लेकर भगवान के समक्ष खड़ा हुआ । पूजा से सम्बन्धित अन्य उपकरणों को लेकर बड़े-बड़े मन्त्रो और अन्य मुख्य नागरिकों को भी राजा ने यथास्थान नियोजित किया। [१५-२७] इन्द्र भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसे भगवान् के मन्दिर में जो प्राणी किंकरभाव से सेवा कार्य करते हैं वे वास्तव में भाग्यशाली हैं, उनका जन्म सफल है, उनकी समृद्धि सार्थक है । वे ही वास्तविक कला, गायन और विज्ञान के अभ्यासी वे ही सच्चे वीर पुरुष हैं, वे ही कुल के भूषण हैं, वे ही त्रैलोक्य में प्रशसा के हैं, वे ही सच्चे धनवान रूपवान, सर्वगुण सम्पन्न हैं, पात्र हैं और उनका ही वास्तव में भविष्य में कल्याण होने वाला है। [२८-३०] अभिषकोत्सव पश्चात् जिनेश्वर भगवान् का अभिषेक महोत्सव प्रारम्भ हुआ। देवताओं के दुन्दुभि नाद के समान वादित्रों की ध्वनि से दिशायें गुजित हो गई। गम्भीर एवं प्रबल घोष करने वाले पटह (ढोला की प्रतिध्वनि के साथ स्वरनाद का संमिश्रण करने वाले शहनाई आदि विविध प्रकार के वाद्यों की ध्वनि मनुष्यों के कर्ण कुहरों को बधिर सा करने लगी। कांस्य वाद्यरव से मिश्रित अव्यक्त एवं मधुर उच्चघोष के साथ करण-कणायमान * कलकल नाद चारों तरफ फैल गया। प्रशमसुखरस की अनुभूति कराने वाले, भगवन्तों के सर्वोत्तम गुणों के वर्णन से परिपूरित और जो श्रवणमात्र से प्रानन्दोत्सेक को प्रवधित करने वाले भावभित गीत बीचबीच में गाये जाने लगे। सर्वज्ञ प्रतिपादित वाणी को उत्कर्ष प्रदान करने * पृष्ठ २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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