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________________ २६४ उपमिति भव-प्रपंच कथा करना अविनय माना जायगा जो मेरे लिये उपयुक्त नहीं है । अतः उनकी प्रार्थना स्वीकार करली | मनीषी की स्वीकृति प्राप्त कर राजा ने हार्दिक प्रसन्नता से अपने सभी महामन्त्रियों को दीक्षा महोत्सव की तैयारी करने में लगा दिया और उन्हें समस्त कार्य त्वरितता से पूर्ण करने की आज्ञा दी । उन्होंने तत्काल ही जिन मन्दिर के चारों तरफ सुन्दर पर्दे लगवाये जिससे मन्दिर में धूप और गर्मी न आ सके और उसकी शोभा द्विगुणित हो जाय । कस्तूरी, केशर, मलय चन्दन और कर्पूर मिश्रित घोल से मन्दिर के प्रांगन को विलेपित कर सुगन्धित किया गया । पांच जाति के सुगन्धित पुष्पों को मन्दिर में जानु पर्यन्त फैला दिये । पुष्पों की गन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर पंक्ति गुजारव करती हुई संगीत की स्वर लहरी उत्पन्न करने लगी । सोने के थंभे खड़े कर उन पर कीमती वस्त्रों का चन्दरवा बांधा गया । चन्दरवों के नीचे मणि- खचित दर्पण ( शीशे ) लटकाये और उसके चारों तरफ मोती की मालायें लटका दीं। चारों ओर इतने अधिक रत्न लटका दिये गये कि उनके प्रकाश से मन्दिर प्रकाशित हो उठा । कृष्ण अगरु का धूप जलाया गया जिससे किसी भी प्रकार की दुर्गन्ध न रहे। पीसे हुए कुंकुम चूर्ण आदि सुगन्धित पदार्थों के फैलाने से तथा घोटे हुए केवडा आदि की प्रशस्त गन्ध से जिन मन्दिर के भीतर-बाहर आस-पास सर्वत्र देवलोक से भी अधिक सुगन्ध आने लगी और उसमें लावण्यवती ललनायें सराबोर हो गई । इस प्रकार समस्त सामग्री तैयार कर देवपूजन के लिये मन्दिर को अच्छी तरह सजाया गया । इतने में ही अनेक देव पारिजातक, मंदार, नमेरु, हरिचन्दन संतानक आदि अनेक प्रकार के देव-पुष्पों से विमान भर कर आकाश को उद्योतित करते हुए देव-दुंदुभि बजाते हुए मन्दिर की ओर आये । उन्हें प्रभु भक्ति के लिये तत्पर और तैयार देखकर अन्य लोग भी अत्यन्त प्रानन्दपूर्वक जगद्गुरु जिनेश्वर देव की पूजा के लिये तैयार हुए। उन्होंने विभिन्न प्रकार के रागरंग पूर्वक इतनी सरस और श्रेष्ठ पूजा की व्यवस्था की कि लोग लम्बे समय तक एकटक उन्हें देखते रहे । उनके अनिमेष देखने से वे वास्तविक देवता जैसे लगने लगे। फिर राजा ने सभी लोगों के साथ चित्त में अनन्त गुणित आनन्द से परिपूरित होकर देवताओं की प्रशस्त मधुर वाणी से स्तुति कर उन्हें प्रानन्दित किया । पश्चात् मेरु पर्वत जैसे ऊंचे शुभ्र भद्रासन पर जिनेन्द्र देव की मूर्ति को * स्थापित किया और भक्ति एवं विधि पूर्वक स्नात्र महोत्सव को तैयारो की । [ १–१४ । ] इधर मनीषी को स्नान कराया, उत्तम वस्त्र पहनाये, मुकुट और बाजूबन्द श्रादि पहनाये, शीर्ष पर गोचन्दन का लेप किया, कंठ में बहुमूल्य हार पहनाया, कानों में देदीप्यमान कुण्डल पहनाये । कुण्ड़लों की आभा से कपोल * पृष्ठ २१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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