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________________ २६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा उपयोग करते हैं, वैसे-वैसे अप्रमाद-यन्त्र अधिक दृढ बनता जाता है और वे. स्पर्शन एवं अकुशलमाला जैसे अन्य अन्तरंग दुष्टों का दलन करने में समर्थ बनते जाते हैं। इस यन्त्र से अन्तरंग दुष्टों का एक बार निष्पीडन कर देने पर फिर वे कभा प्रकट नहीं होते । अतएव हे राजन् ! यदि तुम्हारे मन में इन दुष्टों का निष्पीडन करने की अभिलाषा हो तो उपरोक्त अप्रमाद-यन्त्र को मन में स्वीकार करें और स्वतः ही अपनी स्वयं की दृढ-पराक्रम युक्त मुष्टि का अवलम्बन लेकर इन दुष्टों का निर्दलन करें। इस कार्य के लिये मन्त्री को प्राज्ञा देना व्यर्थ है। यदि कोई दूसरों मनुष्य उन्हें पील भी दे तो वे वास्तव में स्वयं के लिये पूर्णतया पीले नहीं जाते, अर्थात् दूसरा व्यक्ति यदि उन्हें निर्दलित कर भी दे तो वे उसके लिये निर्दलित हुए, पर उसका लाभ अन्य किसी को नहीं मिल सकता । यदि तुम्हें उनको अपने लिये नष्ट करना है जिससे वे तुम्हें कभी न सतायें तो तुम्हें स्वयं अपनी शक्ति का ही उपयोग करना होगा। मनीषो की जिज्ञासा : भावदीक्षा प्राचार्यश्री का प्रवचन चल ही रहा था तभी भगवद्-वचन रूप पवन से कर्मरूप काष्ठ को जलाने वाली शुभपरिणाम रूपी अग्नि मनीषी के मन में प्रज्वलित हुई, स्व-कल्यारण करने का विचार अधिक दृढ़ हया । आचार्य भगवान् ने पहले भागवती भाव-दीक्षा लेने की बात कही तथा बाद में अप्रमाद यंत्र की बात . कही । इन दोनों में क्या सम्बन्ध है ? वह बराबर समझ नहीं सका. अतः अपने सन्देह को दूर करने के लिये उसने हाथ जोड़कर प्राचार्य श्री से पूछा-भगवन् ! आपने पहले भागवतो भावदीक्षा से प्रात्मबल का उत्कर्ष और उसे पुरुष के उत्कृष्टतम स्वरूप प्राप्ति का कारण बताया और अन्त में अन्तरंग के दुष्टों का संहार करने के लिए स्वयं को शक्ति पर आधारित अप्रमाद यंत्र का वर्णन किया, इन दोनों में क्या अन्तर है ? बताने की कृपा करें । * आचार्य -- इन दोनों में शब्दभेद के अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है। परमार्थतः अप्रमाद यन्त्र हो भागवती भावदीक्षा है । ____ मनीषी---यदि ऐसा ही है तो भगवन् ! यदि आप मुझे भागवती भावदीक्षा के योग्य समझे तो मुझे वह प्रदान करने की कृपा करें। प्राचार्य-तू सर्व प्रकार से उसके योग्य है। तुझे वह अवश्य दी जायगी। मनीषा का परिचय शत्रुमर्दन-भगवन् ! मैंने अनेक युद्धों अपने अतुल पराक्रम और अदम्य साहस से विजय प्राप्त की, किन्तु आपके अप्रमाद यंत्र के अनुष्ठान की कठिनाइयों * पृष्ठ २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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