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________________ प्रस्ताव ३ : अप्रमाद यंत्र : मनीषी २८६ प्राचार्य - ये साधु उन उपकरणों को भी निरन्तर अपने साथ ही रखते हैं और प्रति क्षण उनका अनुशीलन करते हैं । शत्रुमर्दन - साधु इन उपकरणों का किस प्रकार अनुशीलन करते हैं ? आचार्य - सुनो। ये मुनि जीवन पर्यन्त अन्य प्राणियों को दुःख नहीं पहुंचाते । लवलेशमात्र भी प्रसत्य नहीं बोलते । दन्तशोधक सलाई जैसी तुच्छ वस्तु भी बिना दिये नहीं लेते । नवगुप्ति युक्त ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं । परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं । धर्मसाधन उपकरणों पर और अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते । रात्रि में चारों प्रकार के आहार (खाद्य-पेय) का सेवन नहीं करते हैं । दिन में भी शास्त्रानुसार संयम यात्रा कि सिद्धि के लिये विशुद्ध उपकरण और निरवद्य आहार लेते हैं । अपना आचरण पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त रखते हैं। अनेक प्रकार के अभिग्रहों को धारण करने में अपने शक्ति - पराक्रम का प्रयोग करते हैं । अकल्याणकारक मित्रों की संगति का परिहार करते हैं । सज्जन पुरुषों के प्रति ग्रात्मभाव दर्शित करते हैं । अपनी योग्य स्थिति का थोड़ा भी उल्लंघन नहीं करते हैं । लोक व्यवहार की उपेक्षा नहीं करते हैं। गुरु और बड़ों का सर्वदा मान करते हैं । उनकी प्राज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हैं । भगवान् प्ररूपित श्रागम-शास्त्रों का भली प्रकार श्रवण करते हैं । यत्नपूर्वक व्रत पालन की भावना रखते हैं । द्रव्य ( बाह्य) आपत्ति में धैर्य रखते हैं । भविष्य में होने वाले दुःखों का पहले से ही विचार कर अपनी समझ अनुसार उनके निवारण का उपाय करते हैं । प्राप्त ज्ञानादि की प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील रहते हैं । अपने चित्त का प्रवाह कर्म-बन्ध की प्रोर न जाय इसके प्रति प्रतिक्षरण सतर्क रहते हैं । मन यदि कर्म-बन्ध के मार्ग पर भागे तो तत्क्षण ही उसके प्रतिकार का उपाय सोच लेते हैं । अनासक्ति के अभ्यास से अपने मन को सतत निर्मल रखते हैं। योग मार्ग का अभ्यास करते हैं । परमात्मा को अपने चित्त में स्थापित करते हैं और उस पर अपनी दृढ़ धारणा करते हैं । विक्षेपकारक बाह्य कारणों का परित्याग करते हैं। अपने श्रन्तः करण को इस ढंग से नियोजित करते हैं कि वह परमात्मा के साथ ऐक्य का अनुभव करने में लग जाता है | योग-सिद्धि का प्रयत्न करते हैं । शुक्लध्यान धारण करते हैं | अपनी आत्मा, शरीर और इन्द्रियों से भिन्न हैं ऐसा स्पष्ट देखते हैं । उत्कृष्ट प्रकार की समाधि को प्राप्त करते हैं और अपना प्राचरण इतना शुद्ध रखते हैं कि जिससे उत्कृष्ट मानसिक निर्मलता को प्राप्त कर शरीर में रहते हुए भी मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं । 1 हे राजन् ! प्राणियों को दुःख से बचाकर अन्त में श्रात्मा को मोक्ष के योग्य बनाने तक उपरोक्त सभी कार्य श्रप्रमाद यन्त्र के उपकरण हैं जिन्हें मुनिगरण प्रत्येक क्षरण उपयोग में लाते हैं । जैसे-जैसे मुनिगरण इनका अधिकाधिक * पृष्ठ २१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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