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________________ प्रस्ताव ३ : बाल के अधमाचरण पर विचार २८५ है, क्योंकि कर्म दो प्रकार के होते हैं-सोपक्रम और निरुपक्रम | सोपक्रम कर्मों का क्षय एवं क्षयोपशम महापुरुषों के संयोग से या ऐसे ही किसी अन्य क रण से होता है, जबकि निरुपक्रम कर्मों का क्षय महापुरुषों के संयोग से भी नहीं हो सकता । अतः निरुपक्रम कर्मों के वशीभूत प्राणी महापुरुषों के समक्ष भी बुरे कार्य करे तो उसे कौन रोक सकता है ? देखो, अतिशय पुण्य-पुंज तीर्थंकर देव भी जब गंधहस्ती के समान पृथ्वीतल पर विचरण करते हैं तब क्षुद्र हाथियों के समान दुष्काल, उपद्रव, लड़ाई महामारी, वैर आदि सौ योजन दूर भाग जाते हैं । तथापि ऐसे तीर्थंकर देवों के समक्ष भी निरुपक्रम कर्मजाल के वशीभूत होकर अधम प्राणी शान्त होकर नहीं बैठते, अपितु उन तीर्थंकर भगवन्तों के ऊपर भी क्षुद्र उपद्रव करने को तैयार हो जाते हैं, अर्थात् उपद्रव करते हैं । शास्त्रों में भी भगवान् के कानों में कीलें ठोकने वाले ग्वाले और अनेक प्रकार के उपसर्ग / उपद्रव करने वाले संगम आदि पापकर्मियों की कथायें सुनते हैं । ऐसे पापी अपने पाप कर्म के आधिक्य से स्वयं भगवान् को भी महा उपसर्ग करते हैं । तीर्थंकरों के विचरण स्थान पर देवनिर्मित समवसरण के मध्य में सिंहासन पर तीर्थंकर चतुर्मुख के रूप में विराजमान होते हैं । उस समय उनकी मूर्ति के दर्शन मात्र से प्राणियों के राग-द्वेष नष्ट हो जाते हैं, कर्म के जाले टूट जाते हैं, वैर-सम्बन्ध शान्त हो जाते हैं, झूठे स्नेह-पाश कट जाते हैं और मिथ्या को सत्य समझने का भ्रम दूर हो जाता है । तदपि कुछ अभव्य और निरुपक्रम कर्मपुंज से आवृत एवं वशीभूत प्राणियों के अंतःकरण में विवेक का प्रसार नहीं हो सकता । फलतः भगवान् के समक्ष भी ऐसे प्राणियों को पूर्ववरित गुणों से उन्हें लेशमात्र का भी लाभ नहीं होता, प्रत्युत भगवान् के प्रति भी उनके हृदय में अनेक प्रकार के कुवितर्क उत्पन्न होते हैं । वे सोचते हैं, 'अहो ! इस ऐन्द्रजालिक का इन्द्रजाल तो अत्यद्भुत एवं प्राश्चर्यकारी ! ग्रहो ! लोगों को ठगने की चतुराई तो देखो !! अरे ! लोगों की बुद्धि मारी गई है जो ऐसे इन्द्रजाल रचने में कुशल, झूठे और वाचाल मनुष्य से ठगे जाते हैं।' इस प्रकार तोर्थंकर भगवान् के समक्ष और उनके निकट भी बुरा आचरण करने वाले प्राणी होते हैं । अतः हे राजन् ! इस बाल ने मेरे समक्ष जो दूषित आचरण किया और अधम कर्म करने का सोचा इसमें कुछ भी प्राश्चर्यकारक या प्रत्यद्भुत नहीं है । इस बाल के शरीर में प्रकुशलमाला निरुपक्रम रूप में विद्यमान है और वह उसकी माता होने से उसके अति निकट भी है । अपनी माता से प्रेरित होकर यह अपने पापी मित्र स्पर्शन को साथ में रखता है, अतः ऐसा परिणाम आये इसमें कुछ भी आश्चर्य करने जैसा नहीं है । फलतः आपको विस्मय नहीं करना चाहिये | सुबुद्धि-- भदन्त ! भगवत्प्ररूपित आगम आदि के श्रवण से जिन प्राणियों की बुद्धि निर्मल हो जाती है उनको इन दुष्कर्मजन्य कृत्यों में लेशमात्र भी * पृष्ठ २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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