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________________ २८४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा प्राणी भी ऐसा आचरण कैसे कर सकते हैं ? ऐसा नीच कार्य करने का अध्यवसाय भी उनके मन में कैसे पनप सकता है ? आचार्य-राजन् ! इस सम्बन्ध में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि उस बेचारे का उसमें कुछ भी दोष नहीं है । शत्रुमर्दन-तब किसका दोष है ? आचार्य-बाल के शरीर में से निकल कर उधर जो दूर बैठा है, उस पुरुष को देखा है ? शत्रुमर्दन-हाँ, उसको देख रहा हूँ। प्राचार्य- उस दूर बैठे पुरुष का ही यह सब दोष है । बाल ने पहले जो पाचरण किया वह उसी के वशीभूत होकर किया है। इस पुरुष के चक्कर में एक बार फंसकर जो उसके वशवर्ती हो जाता है उसके लिये संसार में कोई ऐसा पाप नही जिसका वह आचरण न करता हो। इसके वशीभूत प्राणी की ऐसी ही पराधीन स्थिति हो जाती है। अत: बाल ने कुछ भी अनहोना विचित्र कार्य नहीं किया । उसका आचरण कल्पनातीत भी नहीं है, अतः आपका ऐसा सोचना व्यर्थ है, क्योंकि उस दूर बैठे पुरुष की पराधीनता का यह अति साधारण परिणाम है। शत्रुमदन -- भगवन् ! यदि ऐसा ही है तब आत्मा के लिये अनर्थकारी उस पुरुष को बाल अपने शरीर में क्यों रहने देता है ? प्राचार्य-बेचारा बाल तो यह जानता ही नहीं कि शरीर में रहने वाला यह पुरुष इतना निकृष्ट और अधम है । यद्यपि वह उसका परम शत्रु है, तथापि वह उसके स्वभाव और मूलस्वरूप को नहीं जानता, इसलिये उसे अपने भाई जैसा मानता है और उसके प्रति अत्यन्त प्रेम रखता है । शत्रुमर्दन-ऐसी गलत मान्यता का कारण क्या है ? प्राचार्य-इस बाल के शरीर में उसकी माता अकुशलमाला ने योगशक्ति द्वारा प्रवेश किया है। वही इन सब बुरे विचारों की जननी है । हमने अभी स्पर्शनेन्द्रिय के स्वरूप का जो वर्णन किया कि वह अति दुर्जेय है, उसका मूर्तिमान स्वरूप बाल का पापी मित्र यह स्पर्शन है जो अभी दूर जाकर बैठा हुअा है। हमने जो चार प्रकार के प्राणियों का वर्णन किया है उसमें से जघन्य वर्ग का प्राणी यह बाल है और अकुशलमाला (अशुभ कर्मों की शृखला) उसकी माता है, अत: इसके सम्बन्ध में सब कुछ सम्भव हो सकता है। राजन् ! आपने पूछा कि आचार्यश्री के समक्ष ऐसे नीचे अध्यवसाय (विचार) कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? इस विषय में भी आश्चर्य करने जैसा कुछ भी नही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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