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________________ प्रस्ताव : चार प्रकार के पुरुष २७५ शोभित रोमराजी को धारण करती हुई सुन्दरतम दिखाई देती है । सत्कामरस से भरपूर वापिका जैसी इस की नाभि मनोहर और सज्जन पुरुषों के हृदय के समान गम्भीर लगती है । इसके पयोधर कठोर, गोल, पुष्ट, कलशाकार, उन्नत, विशाल श्रीरप्रति सुन्दर हैं । इसकी बाहुलताएँ (भुजाएँ) सुकुमार, मनोहर और महान पुण्य संचय से प्राप्त हो सकें ऐसी रमरणीय हैं । सुन्दर रूपधारक इस सुन्दरी ने हाथों की शोभा से रक्ताशोक के नवीन और मनोरम रक्त पल्लवों को भी जीत लिया हो ऐसा मैं समझता हूँ । इसकी गोलाकार गर्दन पर आकर्षक तीन रेखायें शोभित हो रही हैं, इन रेखाओंों को मानो विधाता ने त्रिभुवन विजेता के रूप में कित की हों ! इसके कोमल अधर प्रवाल के समान शोभित हो रहे हैं । मृदु और निर्मल कपोलों से निसृत दीप्ति से यह शोभायमान हो रही है । इसके मुख कुन्दपुष्प की कलियों के समान दन्तपंक्ति विलास करती हुई ज्योत्स्ना का पुंज हो ऐसी शोभायमान हो रही है और ऐसा लगता है कि इसके जैसी दन्तपंक्ति तीन भुवन में किसी की भी न हो ! इसकी विशाल प्रांखें कवित् श्वेत, किञ्चित् कृष्ण लालरेखा से शोभित और सूक्ष्म पक्ष्मल ( भांपरणे ) युक्त होने से आनन्द को बढाती हैं । इसकी नासिका का अग्रभाग उन्नत है । इसकी भ्रूलता लम्बी और सुकोमल बालों वाली है । इसका कपाल अलकावली (जुल्फों) से आकर्षक लग रहा है । इसके कानों की रचना करके विधाता को भी मन में अभिमान हुना होगा कि मैंने इसके शरीर के रूप और गुरण के अनुरूप ही कानों का निर्माण किया है । इस का सुगन्धित तेल से स्निग्ध कुटिल केशपाश ( जूडा) अत्यधिक श्राकर्षक लगता है । इस केशपाश में खचित मालती पुष्पों की सुगन्ध से आकर्षित होकर चारों ओर भौंरे (भ्रमर) मंडरा कर इस की शोभा को द्विगुणित कर रहे हैं । कामदेव को जाग्रत करने वाले उसके कर्णप्रिय मधुर स्वर को सुनकर कोयल भी लज्जित हो जाती है और समझती है कि इसके सम्मुख मेरा स्वर विस्वर हो गया है । संसार के सारभूत श्रेष्ठ पुद्गलों को चुन-चुन कर ब्रह्मा ने इस रमणी के रूप - लावण्य की रचना की हो, ऐसा स्पष्टतः लगता है; प्रन्यथा ऐसे सौन्दर्य और लावण्य का निर्माण हो ही नहीं सकता । जैसा इसका रूप सुन्दर है वैसा ही इसका स्पर्श भी कोमल होना चाहिये, इसमें क्या संदेह है ? अमृत के कुण्ड में थोड़ी भी कडुहाट कैसे हो सकती ? यह प्रति चपल नयनवाली नजर चुराकर स्निग्ध दृष्टि से बार-बार मेरी तरफ देख रही है, इससे लगता है कि वह भी मुझे चाहती है ।' ऐसे विपरीत विचारों से बाल का मन आकुल व्याकुल हो गया और भविष्य में इस सुन्दरी के संसर्ग से प्राप्त होने वाले सुख की कल्पना में उसका मूढ मन खो गया । [ ६८- १२१ ] उत्कृष्ट प्रारणी का स्वरूप सूरि महाराज ने अपना उपदेश आगे चलाया - राजेन्द्र ! मैंने तुम्हें * पृष्ठ २०३ Jain Education International में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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