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________________ २७६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा सर्वोत्कृष्ट पुरुषों का स्वरूप बताया वह आप समझ गये होंगे ! अब मैं उत्तम पुरुषों के स्वरूप का वर्णन करता हूँ। [१२२] सूरि महाराज के ऐसा कहने पर मनीषी ने सोचा कि यह तो बहुत अच्छा हा। प्राचार्य श्री यह भली प्रकार समझायेंगे। मध्यमबुद्धि को भी उसने कहा कि आचार्य श्री के उपदेश को ध्यान पूर्वक सुनना और समझना। [१२३] प्राचार्य ने अपने प्रवचन में कहा-मनूष्य-जन्म प्राप्त कर जो प्राणी स्पर्शनेन्द्रिय को शत्रु रूप से पहचान लेते हैं वे उत्कृष्ट/उत्तम प्राणी हैं ।* इस वर्ग के प्राणियों का भविष्य उत्तम होने से वे अपने मन में निर्णय कर लेते हैं कि स्पर्शनेन्द्रिय प्राणियों के लिये किंचित् भी लाभकारी नहीं है। फिर जब वे बोध (ज्ञान) और प्रभाव (धर्मोपदेश) द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय के मूल स्वरूप की जाँच करते हैं तब उन्हें स्पष्टतः पता चल जाता है कि वास्तव में यह इन्द्रिय कैसी है ? जब उन्हें इस इन्द्रिय की यथार्थता ज्ञात हो जाती है, तब वे समझ जाते हैं कि यह इन्द्रिय तो निरन्तर प्राणियों को ठगने का कार्य ही करती है । तब वे सर्वदा उसके प्रति शंकाशील रहते हैं, उससे सचेत रहते हैं और कभी उसका विश्वास नहीं करते। इतना ही नहीं, वे विगतस्पृह होकर अपनी इच्छा पर अकुश रखते हैं और स्पर्शनेन्द्रिय के अनुकूल कोई भी आचरण नहीं करते, इस प्रकार वे विचक्षण तज्जनित दोषों का संचय नहीं करते। शरीर धर्म करने का साधन है, इसलिये उसे टिकाने के लिये आवश्यक कार्य वे स्पर्शनेन्दिय के अनुकूल भले ही करते हैं, पर उसमें उनकी रंचमात्र भी आसक्क्ति नहीं होतो, अतः वे सुख को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार के मनुष्य इस लोक में निर्मल यश प्राप्त करते हैं और उनका प्राशय निष्कलंक और स्वच्छ होने से परभव में भी वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं तथा स्वयं क्रमशः मोक्ष मार्ग के निकट पहुँच जाते हैं। इस विषय में उनको प्रेरित करने वाले सदगुरु तो नाम मात्र के लिये कारणभूत होते हैं, पर वास्तव में तो वे मोक्षमार्ग के प्रति स्वयं ही प्रयाण करते हैं। ऐसे प्राणी स्वयं तो मोक्ष की और प्रगति करते ही हैं पर दूसरों को भी सन्मार्ग पर चलने के लिये आकर्षित करते हैं। वे अपनी वाणी से दूसरों को भी बता देते हैं कि आत्मा का हित करने वाला यदि कोई मार्ग है तो वह यही है। यद्यपि कई अज्ञानी प्राणी उनकी वाणी सुनकर भी सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति नहीं करते तब वे उत्तम प्राणी उनके प्रति उपेक्षा की दृष्टि अपनाते हैं और अपने विशुद्ध मार्ग में निराकुलता के साथ बढते रहते हैं। ऐसे महाबुद्धिशाली उत्कृष्ट मनुष्य स्वभाव से ही देवपूजा, प्राचार्य का सन्मान, तपस्वी की सेवा और श्रेष्ठतम व्यवहार वाले महापुरुषों की पूजा-सत्कार में दत्तचित रहते हैं। [१२२-१३४] प्राचार्य प्रबोधनरति इस प्रकार उपदेश कर रहे थे तभी मनीषी के मन में विचार उठा कि प्राचार्य महाराज ने उत्कृष्ट पुरुष के व्यवहार की जो श्लाघा * पृष्ठ २०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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