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________________ प्रस्ताव ३ : बाल की दुरवस्था बाल को असह्य यातना फिर अपने सेवक विभीषण को बुलाकर राजा ने कहा- अरे विभीषण ! यह महान् अधम पुरुष है । इसे इसी राजमहल के प्रांगन में रखकर इतना अधिक पीड़ित करो कि इसका करुण क्रन्दन मैं सारी रात सुनता रहूँ । विभीषण ने राजाज्ञा को शिरोधार्य किया । फिर जोर-जोर से रोते हुए बाल को पकड़ कर निकट ही के एक फर्श पर घसीट कर ले गया । वज्र जैसे तीक्ष्ण कांटों वाले लोहे के थम्भे से बांधा और ऊपर से उस पर कोड़े बरसाये । उसके शरीर पर गरम तेल डाला, उसकी अंगुलियों में लोहे की कीलें ठोकी और पूरी रात उसे ऐसी अनेक नारकीय जीवों को दी जाने वाली पीड़ाएँ दीं । ॐ विभीषण द्वारा दी गई भयंकर असह्य पीडा से बाल सारी रात हृदयविदारक करुण क्रन्दन करता रहा । Jain Education International २६३ जनता का तिरस्कार उसके रुदन की आवाज कितने ही लोगों ने रात में सुनी थी और कईयों ने दूसरों से सुनी । 'राजमहल में क्या घटना घटी है ?' यह जानने की उत्सुकता से प्रभात में राजमहल के निकट लोगों का समूह एकत्रित हो गया । वहाँ बाल को उस दशा में देखकर लोगों ने कहा - ' अरे ! यह पापी अभी तक जीवित है !' नागरिकों के आक्रोश पूर्ण ऐसे कडुवे वचन सुनकर बाल को जो असह्य दुःख था वह सौ गुणा बढ गया । उस समय विभीषण ने नागरिकों को रात की घटना कह सुनाई, जिसे सुनकर, उसकी निर्लज्ज धृष्ठता को देखकर वह बाल सब की दृष्टि में गिर गया और सब लोग उसके शत्रु बन गये । अत: नगर के प्रमुखों ने राजा से प्रार्थना की - महाराज ! आपके साथ भी जो इस प्रकार का नीच व्यवहार करे वह तो दुष्ट मनुष्य ही है, इसे तो ऐसा दण्ड मिलना चाहिये कि जिससे भविष्य में कोई ऐसा नीच काम नहीं कर सके । मृत्यु - दण्ड का निर्देश शत्रुमर्दन राजा के एक सुबुद्धि नामक प्रधान था । उसकी बुद्धि श्री अर्हत् परमात्मा के आगम ( शास्त्र ) के ज्ञान से पवित्र थी । उसने एकबार नम्रता पूर्वक राजा से प्रार्थना की थी कि किसी भी हिंसा के काम में उससे परामर्श नहीं लिया जाय । राजा ने प्रधान की प्रार्थना स्वीकार की थी, अतः सुबुद्धि प्रधान का परामर्श लिये बिना ही राजा ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि, 'इस अधम की विविध प्रकार से कदर्थना कर इसे मार डालो ।' बाल को मृत्युदण्ड की श्राज्ञा सुनकर जनसमूह अतिशय प्रमुदित हुआ मानो विशाल राज्य की प्राप्ति हुई हो । फिर बाल को एक गधे पर बिठाया गया । उसके गले में फूटे सकोरों की माला पहनायी गई। चारों तरफ से लोग उसे लकड़ी, मुट्ठी और पत्थरों से मारने लगे । दीन ६ पृष्ठ १९४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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