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________________ २६२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा और लोगों के झुण्ड में सम्मिलित हो गया। उस समय रात्रि का अन्धकार भी था और पहरेदार भी किसी अन्य कार्य में व्यस्त थे, अतः बाल छिपते हुए मदनकन्दली के शयनकक्ष में पहुंच गया। कक्ष के मध्य में जाज्वल्मान मरिण-रत्नों की दीप-पोक्त के नीचे उसने एक महर्घ्य विशाल पलंग देखा । उस समय मदनकन्दली शयनकक्ष के पास वाली प्रसाधन-शाला में अपने शरीर पर चन्दन आदि का विलेपन कर रही थी, वस्त्रालंकारों से सुसज्जित हो रही थी। शय्या खाली देखकर मूर्ख के समान ही बाल उस पर चढ़ गया। अहा ! शय्या कितनी कोमल है ! इस भावना से उसका मन आनन्दित हुअा । अपना प्रावरण (ओवरकोट) उतारकर वह शय्या पर लाटपोट होने लगा। राजा शत्रुमर्दन का शयनकक्ष में प्रवेश इतने में ही शत्रुमर्दन राजा सब कार्यों से निवृत्त हो, सभा विसर्जन कर, अपने अंगरक्षकों के साथ सभा मण्डप से शयन-कक्ष की तरफ चल पड़ा। हाथ में जलती हुई मशालें लेकर कुछ सेवक महाराजा को मार्ग बता रहे थे । बातचीत करते, धीरे-धीरे चलते हुए राजा शयन-कक्ष के द्वार तक पहुँचा। बाल ने दूर से ही देखा कि राजा स्वयं आ रहा है। शत्रुमर्दन राजा के भव्य राजस्व तेज से, स्वयं का हृदय सत्वहीन होने से, बुरे काम के आचरण के भय से, कर्मविलास राजा की विरुद्धता से, अकुशलमाला का योगशक्ति द्वारा फल प्रदान करवाने की आतुरता से और स्पर्शन का अपने कार्यों का विपाक (फल) दिलवाने को तत्पर होने से बाल के अंगोपांग भयातिरेक से काँपने लगे तथा वह स्वयं ही घबराकर पलंग से नीचे गिर पड़ा । पलंग जमीन से काफी ऊँचा था, प्रांगन रत्नमय चौकियों से जड़ा था और बाल का शरीर शिथिल एवं अस्त-व्यस्त था, अतः उसके गिरने से बहुत जोर का धमाका हुआ। बाल का पकड़ा जाना यह क्या हया ? जानने के लिये राजा एकदम शयन गृह में प्रविष्ट हा। वहाँ उसने बाल को देखा । 'यह यहाँ कैसे पहँच गया ?' राजा के मन में इस सम्बन्ध में अनेक तर्क-वितर्क होने लगे। पलंग के तकिये पर बाल का प्रावरण पड़ा था और शय्या अस्त-व्यस्त हो रही थी, जिससे राजा समझ गया कि यह पलंग पर से नीचे गिरा है । यह जानकर राजा को दृढ़ निश्चय हो गया कि यह अत्यन्त दुष्ट प्राणी है और मेरी रानी की अभिलाषा करने वाला है, अतएव राजा को उस पर बहुत क्रोध प्राया। बाल की दीनता को भी वह जान गया, परन्तु ऐसे अत्यन्त अधम पुरुष की दुष्टता को अब समाप्त करना ही चाहिये, यह सोचकर राजा ने उसकी पीठ पर जोर से लात मारी, उसके दोनों हाथ पीछे करके मरोड़े और उसी के प्रावरण से उसको मजबूती से बाँध दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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