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________________ २५६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा जब १०८ जाप पूरे हुए तब वह क्रू रविद्या राजा के पास आई और “मैं सिद्ध हुई" ऐसा कहते हुए प्रकट हुई। राजा ने उसे नमस्कार किया और वह क्रू रविद्या उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई । मेरे शरीर में से मांस और खून के निकल जाने से दयोत्पादक स्थिति में मुझे रोता देखकर राजा को थोड़ी दया आई और उसने स्वांस लेते हुए दांतों से आवाज की । तब विद्याधर ने उसे रोकते हुए कहा-'राजन् ! इस विद्या का ऐसा कल्प (नियम) है कि जिस प्राणी की विद्या को पाहुति दी जा रही हो उस पर साधक को दया नहीं करनी चाहिये ।' फिर विद्याधर ने मेरे शरीर पर एक प्रकार का लेप लगाया जिससे मुझे इतनी अधिक पीड़ा हुई मानो मैं चारों ओर से अग्नि में जल रहा हूँ, वज्र से चूर-चूर हो रहा हूँ, घाणी में पेला जा रहा हूँ । अत्यधिक वेदना होने पर भी मेरा सुदृढ़ पापी शरीर उस समय भी समाप्त नहीं हुआ। क्षणमात्र में मेरा शरीर दावानल से दग्ध काष्ठ जैसा हो गया। उसी दशा में विद्याधर और राजा मुझे उठाकर नगर में ले गये । मेरे शरीर पर सूजन लाने के लिये मुझे खूब खट्टी वस्तुएँ खिलाई गई जिससे मेरा पूरा शरीर सूज कर शून्य-सा हो गया। राजा ने मेरे मांस और खून की आहुति देकर * सात दिन तक प्रतिदिन १०८ जाप किये । उसके बाद तूने मुझे जिस अवस्था में देखा, वह तो तू अच्छी तरह जानता ही है। यह मेरो अनुभव कथा है। इस दुःख का जब मैं अनुभव कर रहा था तब मुझे ऐसा लगा कि ऐसा दुःख तो शायद नरक में भी नहीं होगा। मध्यमबुद्धि ने बाल का उपरोक्त वृत्तान्त सुनकर अत्यन्त दु:ख के साथ कहा-भाई बाल ! सचमुच ऐसा दुःख किसी को प्राप्त न हो । अरे? यह पापी विद्याधर कैसा दयाहीन और यह विद्या भी कैसी रौद्र होगी? मनीषी की व्यवहार-बोधक शिक्षा लोकाचार का अनुसरण कर उस समय मनीषी भी बाल के हाल-चाल पूछने और वार्ता की जानकारी लेने वहाँ आया। वह बाहर खड़ा था तभी मध्यमबुद्धि को उपरोक्त प्रकार से शोक प्रकट करते हुए सुना, वह अन्दर पाया । मध्यमबुद्धि और बाल ने उसे बैठने का आसन दिया सत्कार किया और उससे बातचीत करने लगे । थोड़ी बातचीत के पश्चात् मनीषी ने पूछा-भाई । मध्यमबुद्धि ! तू इस प्रकार शोक क्यों करता है ? मध्यमबुद्धि-मेरे शोक का कारण अलौकिक है, असाधारण है । मनीषी-ऐसा क्या असाधारण कारण है ? उस समय मध्यमबुद्धि ने उसे बाल के साथ उद्यान में जाने से लेकर विद्याधर द्वारा उसे उड़ा ले जाने और उसके खून व मांस से किये गये हवन आदि का सब वृत्तान्त कह सुनाया। * पृष्ठ १८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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