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प्रस्ताव ३ : बाल, मध्यम, मनीषी, स्पर्शन
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कहा कि 'भद्र ! किसी भी प्रकार तु अपने प्राण बचाना' ऐसा कहकर बाल को उठाकर मध्यमबुद्धि चल पड़ा । मन में भय था इसलिये रात-दिन दोड़ते हुए आगे बढ़ता गया। बीच में कहीं-कहीं थोड़ा रुक कर बाल को पानी पिलाता, हवा करता, पेय आहार देता । इस प्रकार अपनी शारीरिक-पीड़ा की चिन्ता न कर, बड़ी कठिनाई से बाल को लेकर वह वापिस अपने नगर में पहुँच गया। बाल का अनुभूत वृत्तान्त
अपने स्थान पर पहुँचने के थोड़े दिनों बाद बाल में कुछ शक्ति पाई। एक दिन मध्यमबूद्धि ने उससे पूछा - "भाई ! यहाँ से जाने के बाद तुमने क्या-क्या अनुभव किया ?' उत्तर में बाल ने कहा-भाई ! तेरे सामने ही वह गगनचारी विद्याधर मुझे बांधकर उड़ा ले गया और यमपुरी के समान एक महा भयंकर श्मशान में ले पहुँचा । वहाँ मैंने देखा कि धधकते अंगारों से भरे हुए अग्निकुण्ड के पास एक पुरुष खड़ा था। विद्याधर ने उस पुरुष से कहा-'महाराज ! आपका इच्छित कार्य आज सिद्ध होगा । विद्या सिद्ध करने के लिये जैसे लक्षणों वाले पुरुष को आवश्यकता थी, वह मुझे प्राप्त हुआ है ।' उस पुरुष ने उत्तर दिया-'आपकी बहुत कृपा ।' फिर विद्याधर बोला-'विद्या का एक-एक जाप पूरा होने पर * मैं तुम्हारे हाथ में जो पाहुति दूगा उसे तुम अग्नि में डालना।' उस पुरुष ने विद्याधर का कथन स्वीकार कर जाप करना प्रारम्भ किया। विद्याधर यम-जिह्वा के समान अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाली चमकती एक कटार लेकर मेरे पास आया और मेरी पीठ में से एक बड़ा मांस का टुकड़ा काटा और उसी भाग को दबाकर खून निकाला। मांस और खून से अपनी अंजली भरी । उस समय वहाँ जो दूसरा पुरुष जाप कर रहा था उसकी एक विद्या का जाप पूरा होने पर विद्याधर ने उसे वह पाहति के रूप में प्रदान की। उस पुरुष ने उस आहुति को अग्निकुण्ड में डाला । पुनः उसने जाप करना प्रारम्भ किया। परमाधामी राक्षस जैसे नारकीय जीव के शरीर को काटते हैं वैसे ही विद्याधर मेरे शरीर के भिन्न-भिन्न भागों से मांस काटता और उसी स्थान को दबाकर खून निकालता, उसे अपनी अंजुली में भर कर जाप करते हुए पुरुष के हाथ में देता और विद्या का एक जाप पूरा होने पर वह पुरुष उसे अग्निकुण्ड में डालता। उस समय मुझे इतनी अधिक पीड़ा होती कि वेदना-विह्वल होने से मुझे मूर्छा आ जाती और मैं मूछित होकर जमीन पर गिर पड़ता । पर वह निर्दयी विद्याधर तो मेरे हृष्टपुष्ट शरीर को देखकर हर्षित होता और मेरे दर्द की उपेक्षा कर मेरे शरीर के मांस को अधिक से अधिक काटता । उस समय आकाश में होने वाले अट्टहास के समान, प्रलयंकर मेघ गर्जना के समान, गुलगुलि शब्दकारी समुद्र के समान, भूकम्प से घूमती हुई पृथ्वी के समान शृगाल चमचमाती-लपलपाती जीभ से भयोत्पादक रुदन करने लगे, भयंकर रूपधारी बेताल नाचने लगे और खून की वर्षा होने लगी। ऐसी भयंकर और बीभत्स परिस्थिति में भी उस पुरुष (राजा) का चित्त किंचित् भी चलायमान नहीं हुआ । अन्त में * पृष्ठ १८८
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