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________________ प्रस्ताव ३ : बाल, मध्यम, मनीषी, स्पर्शन २५७ मनीषी पहले से ही यह सब सुन चुका था. पर अपने को अनभिज्ञ बतलाते हुए और आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने सब वृत्तान्त सुना । फिर बोला-बाल को यह क्या हो गया है ? यह तो अच्छा नहीं हुआ। मैंने तो इसे पहले ही कह दिया था कि तू पापो स्पर्शन के साथ मित्रता करता है वह किंचित्मात्र भी हितकारी नहीं है। इस बाल को जो भी दुःख प्राप्त हुए हैं वे सब मेरी समझ से स्पर्शन द्वारा किये गये हैं, अर्थात् स्पर्शन-जनित अनर्थ-परम्परा के कारण ही हुए हैं। यह पापी स्पर्शन आर्यपुरुषों के अयोग्य कार्य करने का प्रेरणा स्रोत है । जब प्राणी आर्यपुरुष के अयोग्य कार्य करने का संकल्प कर लेता है तब अधमवृत्ति के कारण पाप का प्रबल उदय हो जाने से, जैसे मछली कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लोभ में कांटे में फंस जाती है वैसे ही प्राणो एक भी कार्य सिद्ध किये बिना आपत्तियों के जाल में फंस जाता है और मृत्यु को प्राप्त करता है। विपरीत मार्ग और आचरण से किसी प्राणी का कार्य कभी भी सिद्ध नहीं होता है । सुख प्राप्ति के लिये आर्यपुरुष के अयोग्य कार्य करने का संकल्प करना, यह विपरीत मार्ग है। ऐसे खोटे सकल्प ही धैर्य का नाश करते हैं, विवेक का विनाश करते हैं, चित्त को मलिन करते हैं, पूर्व में बांधे हुए पाप-कर्मों को उदय में लाते हैं और अन्त में प्राणी को सर्व अनर्थों के मार्ग पर लाकर छोड़ देते हैं । अतः आर्यपुरुष के अयोग्य एवं अशोभनीय कार्य करने के संकल्प में सुख-लाभ की गंध मात्र भी नहीं पा सकती । बाल को ऐसी भयंकर पीडा भोगनी पडी जिसका एक मात्र कारण यही है कि उसने मेरी शिक्षा को नहीं माना। (अपने मन में पाया वैसे किया और स्पर्शन के साथ सम्बन्ध बढ़ाता गया। बाल ने शिक्षा नहीं मानी उसका फल तो उसे स्वयं ही भोगना पड़ेगा।) इसमें तू क्यों शोक कर रहा है ? बाल-भाई मनीषी ! ऐसे सम्बन्ध रहित वचन बोलने से, असम्बद्ध प्रलाप करने से क्या लाभ ? सत्पुरुष विशिष्ट कार्य सम्पादन करने को जब तैयार होते हैं तब बोच-बीच में दुःख पड़ने से उनके मन में दुःख नहीं होता और न वे अपने काम से पीछे हटते हैं। यदि अभी भी कमल जैसी कोमल शरीर वाली मदनकन्दली मुझे मिल जाय तो इन दुःखों का तो अस्तित्व हो क्या है ? बाल के दुर्व्यवहार पर विभिन्न प्रतिक्रियायें जैसे किसी मनुष्य को विकराल सर्प ने काटा हो तो उसे बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रहता वैसे ही यह बाल अब उपदेश, मंत्र या तंत्र से सच्चे मार्ग पर नहीं आ सकता। 'इसकी अंतर व्याधि अब असाध्य हो गई है' ऐसा सोचकर मनीषी ने दांये हाथ की अंगुली के इशारे से मध्यमबुद्धि को बुलाया और उस स्थान से उठकर * वे दोनों बाहर निकले तथा पास ही के दूसरे कमरे में गये । फिर * पृष्ठ १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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