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________________ प्रस्ताव ३ : प्रतिबोधकाचार्य २३६ विवक्षणा-कालज्ञ-भगवन् ! इस पापिन भोगतृष्णा से सदा के लिये हमारी मुक्ति कब होगी ? तृष्णा से मुक्त होने की कुञ्जी __आचार्य-- इस भव में तो तुम्हारा इससे सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकेगा पर इसका धीरे-धीरे नाश करने के लिये महा मुद्गर के समान आज तुम्हें सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है। सद्गुरुत्रों के सम्पर्क द्वारा इसे बारंबार तेज करते रहने से, भोगतृष्णा के अनुकूल कोई आचरण नहीं करने से, मन में इसका विचार आने से विकार पैदा होंगे इस बात को ध्यान में रखकर ऐसे विकार के प्रसंग में तुरन्त उसके विपरीत भावनाओं द्वारा उसका प्रतीकार करने से यह दुबली-पतली (क्षीण) होती जायेगी और तुम्हारे शरीर में रहते हुए भी तुम्हें पीडित नहीं कर सकेगी। इस प्रकार का प्राचरण करने से तुम दोनों अगले जन्म में इस भोगतृष्णा का सर्वथा त्याग करने में समर्थ बन सकोगे । __ कालज्ञ और विचक्षणा इस बात को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । 'प्रभो ! आपने हम पर महती कृपा की' ऐसा कहते हुए वे आचार्यश्री के चरणों में झुक गये। यह सब सुनकर ऋतु राजा, प्रगुणा रानी, मुग्धकुमार और अकुटिला के मन में बहत पश्चात्ताप हया और साथ ही विशुद्ध अध्यवसाय भी उत्पन्न हए । राजा और रानी सोचने लगे कि, 'पुत्र और पुत्रवधु के द्विगुणित होने के भ्रम में पड़कर निरर्थक ही हमने दोनों से कुकर्म सेवन करवाये, यह बहुत बुरा हुआ।' कुमार सोचने लगा 'मैंने परस्त्री-गमन कर कुल में कलंक लगाया।' अकुटिला सोचने लगी कि 'मेरा शील भंग हा यह बड़ा अकार्य हुआ।' चारों के मन में एक-साथ विचार आया कि हम सभी ये बातें प्राचार्यश्री को बतादें जिससे ये महापुरुष हमें पापों से शुद्धि का कोई रास्ता बता देंगे। आर्जव, अज्ञान और पाप का प्रकट होना राजा, रानो, कुमार और कुमारवधू जब इस प्रकार सोच रहे थे तभी 'मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा' 'मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा' बोलते हुए एक बालक इन चारों के शरीर में से प्रकट हुआ । इसका शरीर इन चारों के शुद्ध परमाणुओं से बना हा था, वह उज्ज्वल वर्ण वाला और तेजस्वी था, उसकी प्राकृति इतनी सुन्दर थी कि उसके सामने दृष्टिपात करने से आँखें शांत और मन प्रसन्न होता था। यह छोटा बालक प्राचार्य भगवान के मूह के सम्मुख देखते हुए सबसे आगे आकर प्राचार्यश्री के समक्ष बैठ गया। इस बालक के पश्चात् एक और बालक प्रकट हया जिसका रंग काला और प्राकृति बीभत्स थी, जिसके सामने देखने से मन में उद्वेग पैदा होता था। इस दूसरे बालक के शरीर में से एक अन्य उसके जैसा ही पर अधिक बेडौल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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