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उपमिति-भव-प्रपंच कथा भोगने से भी यह भोगतष्णा कभी तप्त नहीं होतो। जो मूर्ख प्राणी समझते हैं कि इसे इन्द्रिय सुखों का भोग देकर शांत कर देंगे, वे बेचारे मानो जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं। जो नराधम मोहवश भोगतष्णा को अपनी प्यारी स्त्री बनाते हैं वे महाभयंकर अनन्त संसार-समुद्र में भटकते रहते हैं । जो उत्तम प्राणी भोगतष्णा को दोषयुक्त समझकर उसे अपने शरीर से बाहर निकाल देते हैं और उसके लिये अपने मन के द्वार सदा के लिये बन्द कर देते हैं वे सब प्रकार के उपद्रवों से मुक्त होकर, समग्र पापों को धोकर, अपनी आत्मा को निर्मल कर परमपद को प्राप्त करते हैं। जो सत्पुरुष भोगतष्णा रहित होते हैं वे तोनों लोकों में सभी प्राणियों द्वारा वन्दनीय होते हैं, पर जो प्राणी इसके वश में होते हैं वे सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दा के पात्र बनते हैं । [१-८]
__इसको प्रकृति ऐसी विलक्षण है कि जो अधम प्राणी इसके वशीभूत होकर इसके अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं उन्हें तो यह बहुत दु:ख देती है और जो उत्तम प्राणी इसके प्रतिकूल प्रवृत्ति करते हैं उन्हें यह असीम सुख पहुँचाती है । जब तक प्राणी के मन में यह पापिनी भोगतृष्णा बसी हुई रहती है तब तक उसे संसार प्यारा और मोक्ष कडुग्रा लगता है, परन्तु जब पुण्यशाली प्राणियों के मन से इसका विलय हो जाता है तब संसार के सारे पदार्थ उस प्राणी को धूल के समान निस्सार लगते हैं। जब तक मन में इसका वास रहता है तब तक प्राणी अशुचि के ढेर रूप स्त्री के अंगोपांगों को कुन्द, कमल और चन्द्रमा की उपमा देता है, पर इसके मन से निकलते ही स्वप्न में भी उसे इन अंगोपांगों के सेवन को इच्छा नहीं होती। [8-१४]
पुरुषार्थ और मनुष्यता में समान होते हए भी कई प्राणी इसी भोगतृष्णा के कारण दूसरों की गुलामी जैसे अधम कार्य करते हैं। जिन महात्मानों के शरीर से भोगतृष्णा निकल जाती है वे दुनिया की दृष्टि में चाहे निर्धन हों पर वास्तव में वे धीर-वीर पुरुष इन्द्र के भी स्वामी बन जाते हैं । (क्योंकि भोगतृष्णा से निवृत्त होने पर इन्हें किसी की अपेक्षा नहीं रहती, अतः इन्द्र भी इन्हें नमस्कार करते हैं।) इस भोगतृष्णा का शरीर तामसी और राजसी परमाणुओं के योग से बना है, ऐसा अन्य शास्त्रों में कहा गया है। [१५-१७]
[प्राचार्यश्री सभा को और विशेषकर कालज्ञ और विचक्षणा को उद्देश्य कर पुनः कहने लगे।
इस पापी स्त्री ने ही तुम्हें पाप कर्मों में प्रवृत्त कराया है । तुम दोनों का इसमें कोई दोष नहीं है। * तुम दोनों स्वरूप से निर्मल हो पर इस स्त्री के कारण ही तुम दोनों में यह दोष उत्पन्न हुए हैं। यह भोगतृष्णा ही समस्त दोषों की जननी है। वह इस धर्म-सभा में खड़ी रह सकने में असमर्थ है इसीलिये वहाँ दूर जाकर, तुम्हारे यहाँ से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रही है। [१८-२०] * पृष्ठ १७५
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