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________________ प्रस्ताव ३ : प्रतिबोधकाचार्य २३७ स्वरूप अत्यन्त बीभत्स और विवेकी प्राणियों को उद्वेलित करने वाला था। वह स्त्री आचार्य श्री के तेज को सहन न कर सकी, अतः शीघ्र ही निकल कर सभा से बाहर दूर जाकर उल्टा मुंह करके बैठ गई। पश्चात्ताप और स्वरूप-दर्शन कालज्ञ और विचक्षणा के हृदय पश्चात्ताप से इतने पानी-पानी हो गये कि उनकी आँखों से आँसू ढलने लगे और वे दोनों एक साथ प्राचार्यश्री के पाँवों में पड़ गये। पौव छकर कालज्ञ व्यन्तर ने कहा- भगवन् ! मैं तो अधमाधम हूँ। प्रभू ! मैंने अपनी पत्नी को भी ठगा है, पर-स्त्री के साथ विषय भोग किया है, सरल हृदय वाले मुग्धकुमार को भी ठगा है, ऋतुराजा और प्रगुरणा रानी के मन में नकली पुत्र पर मोह उत्पन्न किया है। इस प्रकार के कार्यों द्वारा मैंने दूसरों को ही नहीं वस्तुतः अपने आप को ही ठगा है। प्रभु ! मैं बहुत पापी हूँ, इस प्रकार के घृणित पापकर्मों से मेरी शुद्धि किस प्रकार होगी? विचक्षणा-भगवन् ! मुझ पापिनी की भी शुद्धि कैसे होगी? मुझ पापिन ने भी वही सब पाप किये हैं, जिन्हें अब फिर से दोहराने की क्या आवश्यकता है ? आप तो दिव्य ज्ञानी हैं, अत: आप सब वास्तविकता को जानते ही हैं, आपसे क्या छिपाना । (प्रभु ! मैं क्या करू जिससे मेरा उद्धार हो सके, कृपया बताइये।) आचार्य -- इस विषय में विषाद करने की आवश्यकता नहीं है। तुम दोनों का इसमें कोई दोष नहीं है । तुम लोगों का वास्तविक रूप तो निर्मल है। कालज्ञ-विचक्षणा- भगवन् ! तब यह किसका दोष है ? आचार्य-भद्रों! यह सब दोष उस स्त्री का है जो तुम्हारे शरीर में से निकलकर उधर दूर पोठ फेरकर बठी है ।* कालज्ञ-विचक्षणा-भगवन् ! इस स्त्री का नाम क्या है ? प्राचार्य-भद्रों ! इसका नाम भोगतृष्णा है। कालज्ञ-विचक्षणा-भगवन् ! वह इन सब दोषों की कारण किस प्रकार है ? प्राचार्य . इस भोगतृष्णा के स्वरूप को सुनो जिस प्रकार रात्रि अन्धकार को चारों तरफ फैलाती है, उसी प्रकार यह भोगतृष्णा रागादि दोषों के समूह को चारों तरफ फैलाती है। यह महानीच और अयोग्य कार्य करने वाली है, अत: यह जिस प्राणी के शरीर में प्रवेश करती है उसमें सहसा अकरणीय कार्यों को करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । जैसे अग्नि का पेट घासफूस काष्ठ से नहीं भरता, जैसे जल से समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे ही प्रचुर भोगों को * पृष्ठ १७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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