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________________ २२४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा स्पर्शन- मैंने अभी तो आपसे कहा कि मुझे उस पापी का इतना भय लगता है कि मैं उसका नाम भी नहीं लेना चाहता। मैंने पहले भी तुम्हें इसीलिये उसके बारे में कुछ भी नहीं बताया था। वह महापापी है, उसका नाम लेने से भी क्या लाभ ? पापी मनुष्य की बात करने से भी पाप की वृद्धि होती है, यश में धब्बा लगता है, लघुता प्राप्त होती है, मन में बुरे विचार आते हैं और धर्मबुद्धि का क्षय होता है। मनीषी -- तेरी बात तो ठीक है, पर मुझे उसका नाम जानने की बहत उत्सुकता है। जब तक तू मेरे पास है तब तक तुझे उस अनुचर या अन्य किसी से भी डरने की आवश्यकता नहीं है। नाम-ग्रहण मात्र से पाप नहीं लग जाता, अग्नि का नाम लेने से मुंह नहीं जल जाता, अतः तू निर्भय होकर उसका नाम बता। मनीषी का इतना अधिक प्राग्रह देख कर स्पर्शन भय से चारों ओर देखने लगा, फिर धीरे से बोला- भाई ! यदि ऐसा ही है तो सुनो, उस दुर्नामक पापी का नाम सन्तोष है। मनीषी का विचारपूर्वक प्रात्म निर्णय अब मनीषी अपने मन में सोचने लगा, स्पर्शन के मूल का जो पता प्रभाव ने लगाया था वह ठीक ही लगता है। उसने जो पता लगाया उससे सन्तो.. का सम्बन्ध नहीं जुड़ता था, वह भी अब जुड़ गया है। मैंने प्रारम्भ से ही सोचा था कि इस स्पर्शन का अधिक परिचय अच्छा नहीं है, वह ठीक ही था । विषयाभिलाष मन्त्री ने इस स्पर्शन को लोगों को ठगने के लिये ही भेजा है और उस काम को पूरा करने के लिये ही वह इधर-उधर भटक रहा है, अतएव यह व्यक्ति संगति (मित्रता) के योग्य कदापि नहीं है। फिर भी अभी तक मैंने उसे मित्र की भांति माना है और ऊपर-ऊपर से स्नेह भी दिखाया है तथा बहुत समय तक इसके साथ खेला भी हूँ, अतः इसे एकदम छोड़ देना भी उचित नहीं होगा। परन्तु, अब मैं उसके स्वरूप को अच्छी तरह से जान गया हूँ, अतः उसका अधिक विश्वास करना भी उचित नहीं है। अब मैं उसके मनोनुकूल आचरण नहीं करूंगा, मेरा प्रात्मस्वरूप उसे नहीं बताऊँगा, मेरी गुप्त बात उसको नहीं कहूँगा, फिर भी उसे यह पता नहीं लगने दूंगा कि मेरा उसको चाहना दिखावा मात्र है, क्योंकि वह विचित्र स्वभाव का व्यक्ति है। अतएव अभी तो इसके साथ समय व्यतीत करना और उसके साथ पहले जैसा व्यवहार ही रखना चाहिये, पहले की भांति सम्बन्ध रखते हुए उसके साथ घूमना-फिरना चाहिये, वह जो भी काम करने को कहे उनमें से आत्मिक प्रयोजन को नष्ट न करने वाले काम करने चाहिये * तथा जब तक मैं उसका सर्वथा त्याग न कर सकू तब तक उसके साथ इसी प्रकार का व्यवहार रखते हुए उस पर अधिक * पृष्ठ १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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