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________________ २१२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा बाल का स्पर्शन पर स्नेह स्पर्शन की उपर्युक्त बात सुनकर बाल ने कहा-बहुत अच्छा, स्पर्शन ! भाई, तूने तो बहुत ही अच्छा किया । तुम्हारा व्यवहार तो उचित ही प्रतीत होता है। अपने प्रिय मित्र से तिरस्कार मिले, यह तो असहनीय है । मित्र के विरह से जो पीडा होती है वह अन्य किसी उपाय से नहीं मिट सकती । लोग कहते हैं किः क्षमाशील पुरुष भी तिरस्कार को सहज भाव से सहन करें यह अशक्य है। सोने से अलग होकर पत्थर भी राख हो जाता है। [१] । प्रतिष्ठित मनुष्य मित्र के विरह में जीवित नहीं रहते । यदि जीवित रहते हैं तो वह उनके योग्य भी नहीं है । जैसे सूर्य अस्त होने पर दिन भी उसके साथ ही विदा हो जाता है। [२] अहो ! तेरा मित्र-प्रेम, दृढ़-स्नेह, कृतज्ञता, साहस, सत्यभाव वास्तव में श्लाघनीय है। दूसरी ओर भवजन्तु की क्षरण में आसक्ति और क्षण में विरक्ति विचित्र है अहो! उसकी कृतघ्नता, मूढता, घातकी-हृदय. अनार्य-क्रिया और प्रवृत्ति सब अद्भुत लगते हैं। हे भद्र ! ऐसा होने पर भी अब मैं तुझे एक बात कहता हूँ, तू सुन । स्पर्शन-आर्य ! आप किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्पों से रहित हो कर जो कुछ कहना चाहते हों, कहिये । बाल बोला-कैसे ही प्रतिकूल प्रसंगों में भी पीछे न हटने वाले, मित्रता के वास्तविक अभिमान को रखने वाले और स्नेह के लिये प्राणों को झोंकने वाले तेरे जैसे प्रेमी मनुष्य को जो करना चाहिये वही तूने किया है । [१] परन्तु, अब मुझ पर कृपा कर तुझे अपने प्राण रखने पड़ेंगे। मैं तुझे आत्महत्या तो नहीं करने दूंगा, अन्यथा मेरी भो तेरे जैसी ही गति होगी। तेरी ऐसी स्वाभाविक मित्र-वत्सलता से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। सत्पुरुष दाक्षिण्यता के सागर होते हैं । अमुक मनुष्य अच्छा है या नहीं यह उसके सत्कार्यों से ही जाना जाता है। अत: मैं तुझे जो कह रहा हूँ उस पर किसी भी प्रकार की ऊहापोह किये बिना ही तुझे वह करना चाहिये, ऐसी मेरी प्रार्थना है । यह बात ठीक है कि किसी को प्राम खाने की इच्छा हो तो वह इमली से पूरी नहीं होती। फिर भी मुझ पर कृपा कर, भवजन्तु के विरह का जो तुझे दुःख हुया है उसके प्रतीकार के रूप में मेरे साथ सम्बन्ध स्थापित कर, उसकी पूति तू मुझ से कर सकता है। स्पर्शन-बहुत अच्छा आर्य ! आप पर किसी प्रकार का उपकार न करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति पर भी वात्सल्य लाने वाले आपने अति स्नेह-सिंचित वचनामृत से मेरे प्राणों को बचाया है । आप जैसे महान् प्राणी से मैं अब अधिक क्या * पृष्ठ १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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