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________________ प्रस्ताव ३ : स्पशन कथानक २११ दिया। मेरे कहने से उसने पहले कोमल रुई का गद्दा, तकिया, शय्या ले रखे थे किन्तु अब मुझे जो कुछ अधिक प्रिय था उन सब का उसने त्याग कर दिया । हंस की पांखों से भरे आसनों को छोड़ दिया। कोमल उत्तरीय वस्त्र, रेशमी वस्त्र कम्बल, चीनांशुक और लम्बे वस्त्र आदि सब का त्याग कर दिया। सर्दी और गर्मी की ऋतु में कस्तूरी, गोचंदन आदि के लेप जो मुझे बहुत प्रिय थे, उनका भी उसने त्याग कर दिया। कोमल शरीरलता से प्रानन्द और ग्राह्लाद प्रदान करने वाली और मुझे अत्यधिक प्रिय स्त्रियों का तो उसने सर्वथा त्याग कर दिया। बात यहाँ तक बढी कि वह भवजन्तु सिर के बालों का लुचन करता, कठिन धरती पर सोता, शरीर पर मेल चढ़ने देता, फटे हुए वस्त्र पहिनता, स्त्री के अंगों का स्पर्श भी नहीं करता। भूल से यदि कभी स्त्री का कोई अंग भी छ जाय तो उसका प्रायश्चित्त करता । अत्यधिक सर्दी वाले माघ के महीने की ठण्ड सहन करता। जेठ-आषाढ की गर्मियों में धूप की आतापना सहता। मेरे घोर शत्रु की भांति जो बात मुझे अच्छी न लगे, उसका वह अवश्य आचरण करता। उसका यह रूप देखकर मैंने विचार किया कि भवजन्तु ने तो मेरा सर्वथा त्याग कर दिया है और वह मुझे अपना शत्रु समझता है। परन्तु, बड़े लोगों का कहना है कि प्रेमी लोग मृत्यु पर्यन्त स्नेह का त्याग नहीं करते । यद्यपि भवजन्तु इस * पापी-मित्र सदागम की छलना में आकर मुझे दुःख दे रहा है तब भी ऐसे असमय में मुझे उसका त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि अभी वह भोला है । बहुत समय तक वह मुझ से एकात्म होकर प्रेम करता रहा है और मुझे अभीष्ट लगे ऐसे प्रिय कार्य करता रहा है । अभी सदागम की संगति से उसमें विपरीत भाव पैदा हो गये हैं। थोड़े समय पश्चात् सदागम चला जायेगा या उसकी संगति छूट जायेगी तब मेरा मित्र अवश्य ही अपनी पूर्व-स्थिति में आ जायेगा और पूर्ववत् मेरे प्रति स्नेह भाव रखेगा। भवजन्तु द्वारा बहिष्कृत होने पर भी, ऐसे विचारों से अभिभूत होकर कि 'मेरे मित्र का सदागम की संगति से पीछा छट जाएगा' मैं इसी प्रतीक्षा में झूठी आशा से बंधा, मित्र-विरह के दुःख से दुःखी, कुछ समय तो इस शरीर रूपी महल में रहा । एक दिन सदागम की बात मानकर उसने मेरा प्रत्यक्षतः स्पष्ट रूप से तिरस्कार कर दिया। उसने मुझे धक्के देकर अपने शरीर से बाहर निकाल दिया । मेरा मित्र परमाधामी नारकी जैसा दयारहित होकर, मेरे गिडगिडाने की उपेक्षा कर, मेरा तिरस्कार करते हुए मुझ पर क्रोधित होकर कहने लगा - 'जहाँ तू अपनी आँखों से मुझे न देख सके, मैं ऐसे स्थान पर जा रहा हूँ' ऐसा कहकर वह वहाँ से कहीं चला गया । अभी मुझे पता लगा है कि मेरा वह मित्र भवजन्तु तो निर्वृत्ति नगर में पहुँच गया है, जहाँ मेरा जाना असम्भव है । अत: मैंने सोचा कि अपने मित्र से तिरस्कृत, बकरी के गले में लटके आँचल की भांति मित्ररहित व्यर्थ जीवन जीने से क्या लाभ ? ऐसा सोचकर मैंने अपने गले में फांसी लगाई। * पृष्ठ १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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