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________________ २१० उपमिति-भव-प्रपंच कथा भवजन्तु की अन्तर-कथा : स्पर्शन का संग और मुक्ति . मेरा एक भवजन्तु नामक मित्र था और उससे मेरी मित्रता ऐसी थी जैसे कि वह मेरा दूसरा शरोर हो, मेरा सर्वस्व, मेरा प्राण और मेरा हृदय ही हो । उसका मुझ पर इतना स्नेह था कि वह एक क्षण के लिये भो मेरा वियोग नहीं सह सकता था। वह सदैव मेरा लालन-पालन करता और छोटी से छोटी बात में भी मुझे पूछ कर कार्य करता । मुझे बार-बार पूछता, भाई स्पर्शन ! तुझे क्या प्रिय है ? तेरी क्या इच्छा है ? आदि। उसके उत्तर में मैं जिस वस्तु के लिये कहता, वह मेरे लिये वह वस्तु ले आता, उसका मुझ पर इतना स्नेह था। जो मेरी इच्छा के प्रतिकूल हो या मुझे अप्रिय लगे वैसा कोई कार्य मेरा मित्र कभी नहीं करता था। एक दिन मेरे दुर्भाग्य से मेरे उस मित्र ने सदागम नामक पुरुष को देखा । मन में पूज्य भाव लाकर मेरे मित्र भवजन्तु ने सदागम से एकान्त में बातचीत की, उस समय उसे ऐसा लगा कि जैसे वह आनन्द की प्राप्ति कर रहा हो। ॐ उसके पश्चात् भवजन्तु की मुझ पर प्रीति कम होने लगो । पहिले वह मेरा जिस तरह पालन-पोषण करता था, जिस तरह मेरे साथ एकात्म था उसमें कमी आने लगी। मेरे कथनानुसार उसने कार्य करना बन्द कर दिया। बात इतनी बढो कि वह मेरे सुख-दुःख की बात भी न पूछता और उल्टा मुझे शत्रु समझने लगा। मेरे अपराध ढूँढने लगा और मेरी इच्छा के प्रतिकूल प्राचरण करने लगा। तब मुझे विचार पाया कि अरे ! यह क्या हो गया? मैंने इसका कुछ अपकार्य तो किया नहीं, फिर मेरा मित्र असमय में ही ऐसा क्यों हो गया ! मानो छट्ठो का बदला हुया हो अर्थात् जन्म से ही मेरा शत्रु हो । अरे ! मैं कैसा दुर्भागो हूँ ? मेरे तो भाग्य हो फूट गये । मानो मुझ पर कोई वज्र गिरा हो, मानो किसी ने मुझे पीस कर चकनाचूर कर दिया हो, मानो मेरा सर्वस्व हरण हो गया हो, इन्हीं विचारों में मैं कलपता रहा । इस प्रकार मैं शोक की प्रतिमूर्ति बन गया और मुझे असह्य दुःख होने लगा । गहन विचार करते हुए मुझे लगा कि मेरे मित्र में सदागम से एकान्त में बात करने के पश्चात् ही ऐसा परिवर्तन आया है। अतः निश्चय ही इस पापी सदागम ने मेरे परम मित्र को ठगा है। अरे रे ! यह तो अब भी मेरे बार-बार समझाने पर भी, रोने धोने पर भी मेरी बात नहीं सुनता, बल्कि मेरे हृदय को चोरता हुआ मेरा मित्र बराबर सदागम से एकान्त में बातें करता रहता है। जैसे-जैसे मेरा मित्र भवजन्तु सदागम से अधिकाधिक बातचीत करता है, मझे लगता है, वैसे-वैसे उसे उसकी बात अधिक रुचिकर लगती है और वह मेरे प्रति अधिकाधिक निलिप्त होता जा रहा है। मेरे प्रति मेरे मित्र की निलिप्तता जैसे-जैसे बढती जाती वैसे-वैसे मेरा दुःख बढता जाता। ___ एक दिन तो मेरे मित्र भवजन्तु ने सदागम के साथ एकान्त में पर्यालोचन करते हए मेरे साथ के सब सम्बन्ध पूर्णरूप से तोड दिये, मुझे मन से भी निकाल * पृष्ठ १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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