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________________ प्रस्ताव ३ : स्पर्शन कथानक कह ? अभी तक मेरे मन में जो शोक-संताप हो रहा था वह अभी तो नष्ट हो गया है, आपने अभी तो मेरे भूतपूर्व मित्र भवजन्तु को भुला दिया है। आपके दर्शन से मेरी आँखे शीतल, मेरा चित्त आनन्दित और मेरा शरीर शान्त हो गया है। अधिक क्या ! अब तो मैं ऐसा समझता हूँ कि आप स्वयं ही मेरे मित्र वही भवजन्तु है ।। उसी समय से स्पर्शन और बाल का स्नेह अधिकाधिक प्रगाढता को प्राप्त करने लगा। मनीषी की विचारणा मनीषी जो उस समय वहाँ उपस्थित था सोचने लगा कि जो व्यक्ति बहुत विचार पूर्वक काम करता है, वह अपने अनुरक्त, प्रेमी, निर्दोष मित्र का त्याग कभी नहीं कर सकता । फिर सदागम भी दोष-रहित प्रेमी का त्याग करने का परामर्श कभी नहीं दे सकता । मैंने ऐसा सुना है कि सदागम जो कुछ बोलता है या आचरण करता है, वह पूरी तरह सोच समझ कर करता है । अत: इस घटना के पीछे कोई गहरा कारण होना चाहिये । स्वयं मुझे तो यह स्पर्शन कोई अच्छा व्यक्ति नहीं लगता । बाल ने इसके साथ मित्रता बढाई यह मेरे विचार से ठीक नहीं हुआ। इस प्रकार वह अपने मन में सोच रहा था तभी स्पर्शन ने उसके साथ भी बात करना प्रारम्भ किया। मनीषी ने भी लोक-व्यवहार को निभाने के लिये उससे बात की और स्पर्शन के साथ लोक-दिखाऊ मित्रता स्थापित की। स्पर्शन के सम्बन्ध पर राजा के विचार फिर बाल, स्पर्शन और मनीषी तीनों नगर की ओर लौटे। सभी ने राजभवन में प्रवेश किया। उन्होंने कर्मविलास राजा को कालपरिणति रानी के साथ राज्य सभा में बैठा देखा। राजकुमारों ने अपने माता-पिता को नमस्कार किया । माता-पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बैठने को आसन दिया, पर वे आसन पर न बैठकर जमीन पर बैठ गये। उन्होंने अपने पिता से स्पर्शन का परिचय कराया और जंगल में जो घटना हुई थी वह कह सुनायी। साथ ही यह भी कहा कि हम दोनों ने इस स्पर्शन के साथ मैत्री भाव स्थापित किया है । घटना सुनकर कर्मविलास महाराजा बहुत प्रसन्न हुए और मन में सोचने लगे कि इस स्पर्शन को मैंने पहले भी कई बार देखा है । जैसे अपथ्य-सेवन से व्याधि बढती है, अर्थात् संसार कर्म-व्याधि को बढाने वाला है वैसा ही यह है । दोनों राजकुमारों के साथ इसकी मित्रता हुई, यह ठीक ही हुमा । मेरी तो अनादि काल से ऐसो प्रकृति हो गई है कि जो प्राणी स्पर्शन के अनुकूल रहता है उसके साथ मैं प्रतिकूल रहता हूँ और जो इस पर किसी प्रकार का स्नेह न रख कर इसके प्रतिकूल रहता है उसके साथ मैं अनुकूल रहता हूँ । जो इसका सर्वथा त्याग करता है उसे तो मुझे भी छोड़ देना पड़ता है। अब मुझे गहराई से देखना है कि ये कुमार इसके साथ कैसा आचरण करते हैं ? फिर मुझे जैसा योग्य लगेगा वैसा करूंगा। इस प्रकार सोचकर कर्मविलास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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