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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सिद्धर्षि के इस निश्चय से यह पुष्टि होती है कि उनके ग्रन्थ रचना काल में, संस्कृत और प्राकृत का संघर्ष, उत्कर्ष पर पहुंच चुका था। इसी संघर्ष के प्रतिफल स्वरूप, उस युग का सामाजिक, साहित्य और दर्शन की रचनाओं में पाण्डित्य-प्रदर्शन से यह निष्कर्ष निकालने लगा था कि किस धर्म/दर्शन के प्रचारकों/समर्थकों में, कौन/ कितना बड़ा पण्डित है, विद्वान् है । सम्भव है, इस प्रदर्शन से भी जनसाधारण का झुकाव, धर्म विशेष में आस्था जमाने का निमित्त बनने लगा हो । अन्यथा, कोई और, ऐसा प्रबल कारण समझ में नहीं आता, जिससे, बहुजनोपयोगी प्राकृत-भाषा को ताक पर रखकर, मात्र पण्डित वर्ग की भाषा को, ग्रन्थ-प्रणयन के माध्यम के रूप में अङ्गीकार किया जाये। भारतीय प्राख्यान/कथा साहित्य
भारतीय आख्यान/कथा साहित्य को, विश्व-भर के सूविशाल वाङमय में, एक सम्मानास्पद प्रतिष्ठा प्राप्त है। इस सम्मान/प्रतिष्ठा के पीछे, भारतीय कथा साहित्य की वे उदात्त-भावनाएं हैं, जिनसे प्रेरणा पाकर, मानवीय जीवन के विभिन्न-व्यापारों की विशद विवेचनाओं का विविधता-भरा सम्पूर्ण चित्राङ्कन किया गया है। इन शब्दचित्रों में सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, संयोग-वियोग, आसक्तिअनासक्ति, आदि मानव-मन की अन्तर्द्वन्द्वात्मक मनःस्थितियों की विचित्रता, और मानव-जीवन के अभ्युदय और अधःपतन से लेकर मानव-समूह की उत्क्रांति और संकान्ति जन्य गाथाओं के समस्यामूलक समाधानों का अनुभूति-परक राग-रञ्जन समायोजित किया गया है ।
भारतीय आख्यान/कथा साहित्य में, मानव-मन को आन्दोलित करती सांसारिक समस्याओं की विभीषिकाएं और पारलौकिक उपलब्धियों की एषणाएं कहीं मिलेंगी, तो कहीं-कहीं हार्दिक उदारता, बौद्धिक विशुद्धि, मानसिक मनोरञ्जन और आध्यात्मिक उत्कर्ष के विविध सोपानों पर उतरती, चढ़ती, इठलाती भावप्रवणता के मनोहारी लास्य और नाट्य की अनदेखी भङ्गिमाएं भी सहज सुलभ होंगी। उन्मत्त गजराज, क्रुद्ध वनराज, द्रुतगामी अश्व और हरिण-समुदायों के क्रियाकलापों का बहुमुखी वर्णन कहीं मिलेगा, तो कहीं पर, कल-कल छल-छल करती सरिताओं के मधुर-स्वर में मुखरित पक्षी समुदाय का कर्ण-प्रिय कलरव भी दृष्टि पथ से बच नहीं पाता । सधन-वन, गिरि कान्तार और उपत्यकामों की क्रोड में अनुगुञ्जित प्रकृति के मानवीयकरण का वर्णन स्वर, विश्वजनीन वाङमय के बीचों-बीच भारतीय आख्यान साहित्य की सर्वोत्कृष्टता का गुणगान करने से चूक नहीं पाता।
इस सबसे, यह स्पष्ट फलित होता है कि जीवन स्वरूप की सम्पूर्ण अभिव्यंजना, भारतीय कथा/आख्यान साहित्य में जितने व्यापक स्तर पर हुई है, उससे कम, अचेतन-स्वरूप की अभिव्यंजना की समग्रता, कहीं दिखलाई नहीं पड़ती। जड़
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