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________________ प्रस्तावना और चेतन की उभय-विध व्याख्याओं का समान-समादर, भारतीय कथा/आख्यान साहित्य में जैसा हुआ है, वैसा, विश्व की दूसरी किसी भी भाषा के साहित्य में देखने को नहीं मिलता। इन समग्र परिप्रेक्ष्यों को लक्ष्य करके, भारतीय आख्यान साहित्य का जब वर्गीकरण किया जाता है, तब इसे चार प्रमुख वर्गों में विभक्त हुआ हम पाते हैं । ये वर्ग हैं : (1) धर्म कथा साहित्य (Religious Tale) (2) नीतिकथा साहित्य (Didactic Tale) (3) लोककथा साहित्य (Popular Tale) (4) रूपकात्मक साहित्य (Alligorical literature) डॉ० सूर्यकान्त ने, अपने 'संस्कृत वाङमय का विवेचनात्मक इतिहास' में संस्कृत कथा साहित्य को सिर्फ दो वर्गों-नीतिकथा (Didactic Tales) और लोककथा (Popular Tales) में ही विभाजित किया है ।। भारत, एक ऐसा देश है, जिसके जन-जन का जीवन, जन्म से लेकर मरण पर्यन्त तक, धर्म से परिप्लावित रहता चला पाया है । भारत के ऐतिहासिक सन्दर्भो में, कोई भी ऐसा क्षरण ढूढ़ा नहीं जा सकता, जिसमें यह प्रकट होता हो कि भारतीय जन-मानस धर्म-शून्य रहा है। धर्म की इस सार्वकालिक सार्वजनीन व्यापकता को लक्ष्य करते हुये, यही कहना/मानना पड़ता है कि भारत 'धर्ममय' है। धर्म-विहीन भारत का विचार, कल्पना में भी कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। बल्कि, यथार्थ यह है कि भारत को हमें 'धर्म-भूमि' कहना चाहिये । दुनियां भर में, यही तो एक ऐसा देश है, जिसकी धरती पर अनगिनत धर्मों की अवतारणाएं हुईं। ये धर्म, यहाँ विकसे, फूले और फले । और, जब-जब भी भारत भूमि पर धर्म-ग्लानि (ह्रास) का वातावरण बना, तब-तब किसी न किसी कृष्ण ने अवतीर्ण होकर, धर्म को समृद्ध बनाने की दिशा में, उसका पुन:-पुनः संस्थापन किया, या फिर किसी न किसी महावीर ने तीर्थंकरत्व की साधना-समृद्धि के बल पर धर्म-तीर्थ का वर्धापन किया । धर्म वट-वृक्षों के इन्हीं बीजांकुरों के रस-सेक से, भारतीय प्रात्मा को शाश्वत-शान्ति मिलती रही, किंवा, उसे परमात्मत्व का साक्षात्कार होता रहा । उक्त गुण-सम्पन्न तीन महान् धर्म-संस्कृतियां भारत में प्रमुख रही हैं । इन्होंने अपने धार्मिक/दार्शनिक सिद्धान्तों के व्यापक-प्रचार-प्रसार के लिए, आख्यानों कथाओं का जी भर कर उपयोग किया है । परिणामस्वरूप, वैदिक, जैन और बौद्ध, १. संस्कृत वाङमय का विवेचनात्मक इतिहास-पृष्ठ-३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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