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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा १०. पंचाक्षपशु-संस्थान एक बार भवितव्यता ने यह जानकर कि अब मुझे पंचेन्द्रिय बनाने का समय प्रा पहुँचा है, प्रसन्नचित्त होकर कहा- 'आर्यपुत्र ! यदि इस विकलाक्षनिवास नगर में रहने से तुम प्रसन्न नहीं हो तो मैं तुम्हें दूसरे नगर में ले जाऊँ ?' मैंने कहा, 'देवि ! तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा करो, क्योंकि सभी कामों में तुम जो करती हो, वही मेरे लिये प्रमाण है।' फिर मुझे दी गई अंतिम गोली भी घिस गई है, ऐसा जानकर मुझे दूसरे नगर में ले जाने के लिये उसने नई गोली दी। [११-१४] पंचाक्षपशु-संस्थान इस लोक में एक पंचाक्षपशु-संस्थान नामक नगर है। इस नगर पर भी उन्मार्गोपदेशक का ही नियंत्रण है । इस नगर में ५३ लाख कुलकोटि प्रमाण पचाक्ष नामक (पाँच इन्द्रिय वाले) जीव कुलसमूह में रहते हैं। वे जलचर, थलचर और खेचर (आकाशगामी) जाति के होते हैं। उनको स्पष्ट चेतना होती है और ये संज्ञी कहलाते हैं। विद्वान लोग उन्हें गर्भज संज्ञी का नाम भी देते हैं। इन जीवों में यदि किसी को अस्फुट चेतना हो तो उसे असंज्ञी भी कहा जाता है और वे सम्मूच्छिम होते हैं। मैं गोली के प्रभाव से अस्पष्ट चैतन्य वाला सम्मूच्छिम पंचाक्ष जाति में उत्पन्न हुआ। खेलने की रसिक मेरी स्त्री ने वहाँ मेरा बिना कारण ही सब दिन चिल्लाने वाले मेंढक का रूप धारण करवाकर मुझे नचाया। इस प्रकार असंख्य भिन्न-भिन्न आकारों में सम्मूछिम जाति में भटका कर फिर उसने मुझे गर्भज का आकार धारण करने वाला बनाया। [१५-२१] गर्भज पंचेन्द्रिय प्राणियों में भी सर्वप्रथम मुझे जलचर बनाया। जलचर में मुझे मत्स्य रूप दिया गया। वहाँ मच्छीमार मुझे पकड़ कर, काट कर, अग्नि में पका कर हजारों प्रकार के दुःख देने लगे। फिर मुझे चार पैर वाला थलचर बनाया। वहाँ मुझे खरगोश, सूअर, हिरण आदि का रूप दिया गया और उस समय शिकारी तीर मार कर मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते और मुझे अनेक प्रकार से पीड़ा पहुँचाते। फिर स्थलचर में रहते हुए मुझे भूजपरिसर्प और उरपरिसर्प जाति में गो, सांप, नेवला आदि जाति का बनाया जिसमें बहुत समय तक क्रूरतावश एक दूसरे का भक्षण करते हुए मुझे बहुत दुःख सहन करने पड़े। फिर किसी समय मुझे खेचर जाति में कौवा, चील, उल्ल आदि के रूप धारण कर इस जाति के पक्षियों के बीच में रहते हुए मुझे संख्यातीत कष्ट सहने पड़े । असंख्य प्राणियों से भरपूर उस पंचाक्षपशु-संस्थान नगर में प्रत्येक कुल में मैं जलचर, थलचर और खेचर बना। इस नगर में मेरी पत्नी ने सात-आठ बार, एक के बाद दूसरे नये-नये रूप सतत रूप से धारण करवाये और वह मुझे दूसरी जगह ले जाकर फिर वापिस उसी नगर में ले आती। इस प्रकार इस नगर के समस्त स्थानों में बीच-बीच में ले जाकर और लाकर, विभिन्न * पृष्ठ १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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