________________
१४
उपमिति भव-प्रपंच कथा
का उपदेश करेंगे, तो वह उपदेश, एक ओर तो बहुजन उपयोगी बन जायेगा, दूसरी र संस्कृत न जानने वाला बहुजन समुदाय, यह भी जान जायेगा कि तत्त्व ज्ञान के लिए, किसी भाषा विशेष का जानकार होने का प्रतिबन्ध यथार्थ नहीं है ।
महावीर के इस प्रयास का सुफल यह हुआ कि जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में, लगभग पांच सौ वर्षों तक निरन्तर, प्राकृत भाषा का व्यवहार होता चला गया । इसलिए, जैन धर्म का मूलभूत साहित्य प्राकृत भाषा - प्रधान बन गया । महावीर के इस भाषा - प्रस्थान में, जैन मनीषियों का संस्कृत के प्रति कोई विद्वेष भाव नहीं था, बल्कि, उनका प्राशय, अपने धर्मोपदेश की प्रभावशालिता के लक्ष्य पर निर्धारित रहा । आर्यरक्षित का वचन, स्वयं साक्षी देता है कि उनके समय में संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं को समान आदर सुलभ था । 2 दोनों ही ऋषिभाषा कहलाती थीं ।
तत्त्वार्थ सूत्र, जैन साहित्य का सर्वप्रथम संस्कृत ग्रन्थ है, ऐसा प्रतीत होता है । इसके रचयिता उमास्वाति (स्वामी) का समय, विक्रम की तीसरी शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है । यही वह युग है, जिसमें, जैन परम्परा में संस्कृत के उपयोग का एक नया युग शुरु हुआ । तो भी, जैनधर्म और साहित्य के क्षेत्र में प्राकृत का उपयोग अनवरत चलता रहा । किन्तु, दार्शनिक युग के आते-आते, जैन मनीषियों को स्वत: यह स्पष्ट अनुभूत हुआ कि जैन धर्म और दर्शन की व्यापक प्रतिष्ठा के लिये, संस्कृत का ज्ञाता होना, उन्हें अनिवार्य है । दार्शनिक युग की विशेषता यह रही है कि इस युग में, भारतीय दर्शन की अनेकों शाखाओंों में, प्रबल प्रतिद्वन्द्विता छिड़ी हुई थी । फलत: अपने मत की स्थापना में, ग्रन्थकारों को प्रबल तर्कों का सामना करना पड़ा । इन प्रतिद्वन्द्वी तर्कों का विखण्डन युक्ति पूर्वक करना, और स्वमत का स्थापन भी, तर्क पूर्ण कसौटी पर जांच-परख कर करना, इस युग के ग्रन्थकारों का महनीय दायित्व बन गया था ।
इतना ही नहीं, इस युग में, यह भावना भी बलवती हो चुकी थी कि जो विद्वान्, संस्कृत भाषा में ग्रन्थ-प्रणयन की सामर्थ्य नहीं रखता, वह वस्तुतः विद्वत्कोटि का पाण्डित्य भी नहीं रखता । इस उपेक्षित भावना से परिपूर्ण वातावरण ने, जैन दार्शनिकों के मानस में भी मन्थन पैदा कर दिया । इसी मन्थन के नवनीतस्वरूप, जैन धर्म-दर्शन के महत्त्वपूर्ण संस्कृत-ग्रन्थों की सर्जनाएं हुईं। जिनमें, जैनधर्म और दर्शन का स्वरूप एवं सिद्धान्त, विस्तार - विवेचना को आत्मसात्
कर सका ।
इस प्रयास से, जैन विद्वानों ने, सामयिक समाज पर यह छाप डालने में भी सफलता प्राप्त की कि जैन विद्वान्, मात्र प्राकृत भाषा के ही पण्डित नहीं हैं, वरन्
१.
२.
जन्म -- ई. पू. ४ (वि. सं. ५२), स्वर्गवास - ई. सन् ७१ (वि. सं. १२७ ) सक्कयं पागयं चेव पसत्थं इसिभासियं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org