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________________ १३ इस तरह, हम देखते हैं कि वेदों के प्रति रहस्यमय ज्ञान से लेकर जनसाधारण के मनो विनोद सम्बन्धी कथाओं तक, जितना भी साहित्यिक वैभव विद्यमान है, वह सारा का सारा संस्कृत भाषा में सुरक्षित है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है - 'साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक जीवन की समग्र व्याख्या संस्कृत साहित्य / वाङ्मय में सर्वात्मना समाहित है ।' जैन साहित्य में संस्कृत का प्रयोग जैन धर्म और साहित्य का कलेवर भी व्यापक परिमाण वाला है । इसके प्रणयन में संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं का मौलिक उपयोग किया गया । यद्यपि, जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपना सारा उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिया । उसे सङ्कलित / गुम्फित करने में, उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि गणधरों ने भी प्राकृत भाषा को उपयोग में लिया, तथापि, कालान्तर में श्रागे चल कर, जैन मनीषियों ने संस्कृत भाषा को भी अपने ग्रन्थ- प्ररणयन का माध्यम बनाया । और संस्कृत-साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया । वैसे, जैन मान्यतानुसार, पुरातन जैन धर्म और दर्शन की परम्परागत अनुश्रुतियाँ यह बतलाती हैं कि जैन धर्म का मौलिक पूर्व साहित्य, संस्कृत भाषा - बद्ध था । प्रस्तावना भगवान् महावीर के काल तक, प्राकृत भाषा, जन-साधारण के बोल-चाल और सामान्य व्यवहार में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी थी । और, संस्कृत उन पण्डितों की व्यवहार - सीमा में सिमट चुकी थी, जो यह मानने लगे थे कि संस्कृतज्ञ होने के नाते, सिर्फ वे ही तत्त्वद्रष्टा और तत्त्वज्ञाता हैं । जो लोग संस्कृत नहीं जानते थे, वे भी यह स्वीकार करने लगे थे कि तत्त्व की व्याख्या कर पाना, उन्हीं के बलबूते की बात है, जो 'संस्कृतविद्' हैं । इस स्वीकृति का परिणाम यह हुआ कि महावीर युग तक, संस्कृत न जानने वालों की बुद्धि पर, संस्कृतज्ञ छा गये । महावीर ने इस स्थिति को भली-भांति देखा-परखा और निष्कर्ष निकाला कि सत्य की शोध - सामर्थ्य तो हर व्यक्ति में मौजूद है । संस्कृत के जानने न जानने से, तत्त्वबोध पर कोई प्रभावकारी परिणाम नहीं पड़ता । वस्तुतः, तत्त्वज्ञान के लिए जो वस्तु परम अपेक्षित है, वह है- चित्त का राग-द्वेष रहित होना । जिस का चित्त राग-द्वेष से कलुषित है, वह संस्कृतज्ञ भले ही हो, किन्तु तत्त्वज्ञ नहीं हो सकता । क्योंकि, सत्य का साक्षात्कार करने में 'भाषा' कहीं भी माध्यम नहीं बन पाती । महावीर की इसी सोच-समझ ने उन्हें प्रेरणा दी, तो उन्होंने अपने द्वारा अनुभूत सत्य का, तत्त्व का स्वरूप- प्रतिपादन प्राकृत भाषा में किया । महावीर की भावना थी, यदि वे, जन-साधारण की समझ में आने वाली भाषा में तत्त्वज्ञान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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