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________________ १७६ उपमिति भव-प्रपंच कथा दे । जब-जब प्रारणी की यह पहली गोली जीर्ण हो जाय ( घिस जाय ) तब तू उन्हें दूसरी गोली दे देना । इन गोलियों के प्रभाव से विविध रूपों में होते हुए भी एक साथ निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी जन्म पर्यन्त तेरी इच्छानुसार समस्त कार्य स्वतः ही पूर्ण करेंगे, इससे तेरी समस्त व्याकुलता दूर हो जाएगी ।' राजा की आज्ञा को भवितव्यता ने स्वीकार किया । पश्चात् वह सर्व प्राणियों पर सब कालों में समय-समय पर गोलियों का प्रयोग करने लगी । मैं जब संव्यवहार नगर में था तब भी वह मुझे जब-जब मेरी गोली घिस जाती तब-तब दूसरी गोली देती और इस प्रयोग से वह मेरा एक समान आकार वाला सूक्ष्मरूप मात्र बार-बार बनाती रहती । जब मैं एकाक्षनगर में आया तब भी तीव्रमोहोदय और प्रत्यन्ताबोध को आश्चर्य में डालने के लिये मुझे अनेक प्रकार के स्वरूपों में बदलती रहती । जब मैं एकाक्षनगर में रहने लगा तब यह भवितव्यता कभी मेरा सूक्ष्म रूप बनाती, किसी समय पर्याप्त, कभी अपर्याप्त और कभी बादर (दिखाई देने वाला) बनाती । बादर में भी वह कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त दशा में रखती । बादर दशा में भी वह कभी मुझे साधारण वनस्पति के कमरे में रखती श्रौर कभी मुझे प्रत्येकचारी (प्रत्येक वनस्पति बनाती । प्रत्येकचारी में वह मुझे कभी अंकुर, कभी कंद, कभी मूल, कभी छाल, कभी स्कन्ध, कभी शाखा - प्रशाखा, कभी नवांकुर, कभी पत्र, कभी फूल, कभी फल, कभी बीज, कभी मूल बीज, कभी अग्रबीज, कभी पर्वबीज, कभी स्कन्धबीज, कभी बीजांकुर और सम्मूछिम आदि अनेक रूपों में बदलती रहती । कभी वृक्ष, गुल्म, लता, बेल, घास आदि के आकार वाला मुझे बनाती । जब मैं इन अवस्थाओं में रहता था तब ऐसे समय में किसी दूसरे नगर के लोग आकर भवितव्यता के सन्मुख कंपायमान दशा में मुझे छेदते, भेदते, दलते, पीसते, मरोड़ते, तोड़ते, बींधते, जलाते श्रौर अनेक तरह से कष्ट देते । उस समय में भवितव्यता मेरे पास खड़ी खड़ी देखती रहती, पर मुझे प्राप्त इन कदर्थनाओं के प्रति वह उपेक्षाभाव ही रखती । दूसरा मोहल्ला : पृथ्वीकाय इस प्रकार से * दुःख सहन करते हुए मुझे अनन्त काल बीत गया । अन्त में जब मुझे दी हुई गोली घिस गई तब भवितव्यता ने मुझे दूसरी गोली दी । इस गोली के प्रभाव से मैं एकाक्षनगर के दूसरे मोहल्ले में गया, वहां पार्थिव नामक जीव रहते हैं । इन लोगों के मध्य में जाकर मैं भी पार्थिव बन गया । यहाँ भी भवितव्यता मुझे नई-नई गोलियाँ देकर मेरे सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि रूप बनाये | मुझे काला, आसमानी, सफेद, पीला, लाल आदि रूप दिये । रेत, पत्थर, नमक, हरताल, पारा, सुरमा, शुद्ध पृथ्वी आदि अनेक रूप मुझ से धारण करवाये | इस प्रकार असंख्य काल तक वह मेरी विडम्बना करती रही । वहाँ मेरा भेदन * पृष्ठ १३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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