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________________ प्रस्ताव २ : एकाक्षनिवास नगर १७५ में भी जीव रहते हैं । अन्तर केवल इतना है कि असंव्यवहार नगर के लोग लोकसम्बन्धी किसी भी व्यवहार में नहीं पड़ते, अतः वे असंव्यवहारी अथवा अव्यवहारी कहलाते हैं। वे भगवती लोकस्थिति की आज्ञा से केवल एक बार ही तुम्हारी तरह उस स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं और फिर वहाँ लौटकर नहीं जाते । पर, इस मोहल्ले के लोग तो लोक-व्यवहार करते हैं और बार-बार एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्राते-जाते हैं, इसीलिये इनको सांव्यवहारिक अथवा व्यवहारी कहते हैं । असंव्यवहार नगर में रहने वाले लोगों को अनादि वनस्पति जैसे सामान्य नाम से पहचाना जाता है जब कि इस सांव्यवहारिक मोहल्ले में रहने वालों को 'वनस्पति' जैसा नाम दिया जाता है । यही इन दोनों में अन्तर है। फिर यहाँ असंख्य प्रत्येकचारी जीव भी हैं जो गोलक भवन और निगोद रूपी कमरों के बिना अलग-अलग घरों में रहते हैं । अतः तू यहाँ ठहर । तुझे पहले से असंव्यवहार नगर का परिचय है, उसके जैसा ही यह (साधारण वनस्पति मोहल्ला है, अतः तुझे यहाँ अच्छा लगेगा।' इस प्रकार सुनकर मैंने कहा- 'देव ! जैसी आपकी आज्ञा ।' फिर मुझे एक कमरे में ठहराया गया। मेरे साथ जो दूसरे लोग लाये गये थे उनमें से कुछ को इसी मोहल्ले में रखा गया, कुछ को स्वतन्त्र कर दिया और कुछ को दूसरे मोहल्लों में ले गये । हे भद्रे ! मैं तो साधारण शरीर नामक कमरे में रह गया। वहाँ अनन्त जीवों के साथ पिण्डीभूत होकर पहले की तरह निद्राधीन, मदिरापान से मत्त, मूच्छित और मृत की तरह उनके साथ ही स्वांसे लेता, उनके साथ ही स्वांसे छोड़ता, उन्हीं के साथ आहार करता और उन्हीं के साथ नीहार करता हुअा अनन्त काल तक रहा। एक समय मेरे विषय में कर्मपरिणाम महाराज की फिर आज्ञा आई जिसके अनुसार राज्यपाल और सेनापति ने मुझे उस कमरे से बाहर निकाला तथा भवितव्यता ने मुझे एकाक्ष निवास नगर के उसी मोहल्ले के दूसरे विभाग में असंख्यकाल तक प्रत्येकचारी के रूप में रखा । एकभववेद्य गुटिका इधर कर्मपरिणाम महाराजा ने लोकस्थिति को पूछकर, महाराणी कालपरिणति के साथ विचार-विमर्श कर, नियति और स्वभाव आदि को निवेदन कर और भवितव्यता की अनुमति लेकर विचित्र आकार को धारण करने वाले * लोक-स्वभाव की अपेक्षा से तथा अपनी ही शक्ति से सब कार्य सम्पन्न कर सके ऐसे परमाणूत्रों से निर्मित 'एकभववेद्य' नामक गोलियाँ बनाई और उन गोलियों को भवितव्यता को देते हुए उन्होंने कहा-'भद्रे ! तू समस्त लोक-व्यापार करने में उद्यत होने से और क्षण-क्षण में लोगों के अनेक प्रकार के सूख-दुःख के कार्य सम्पादन करती हुई थक गई लगती है, अतः ये गोलियाँ ले और उन प्राणियों को * पृष्ठ १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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