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________________ १७४ उपामात-भव-प्रपच कथा बात मेरे लक्ष्य में कैसे नहीं होगी ? अतः मुझे बुलाकर पूछने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी । इसीलिये मैंने कहा कि इस बात में कुछ सार नहीं है ।। __ अत्यन्तप्रबोध आपकी बात सही है। आपसे पूछते समय मैं आपके माहात्म्य को भूल ही गया था। मेरे इस अपराध को पाप क्षमा करें । अब यहाँ से जो लोग आगे भेजने योग्य हैं उन्हें पाप कृपा कर भेज दीजिये। हमें अब इस विषय में कुछ भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। भवितव्यता-एक तो मेरा पति संसारी जीव भेजने योग्य है और दूसरे उसी की जाति के ये सब जीव भेजने योग्य हैं। अत्यन्त प्रबोध-इस विषय में आप अच्छी तरह जानती हैं, अतः हमें तो इस विषय में कुछ भी बोलने की आवश्यकता नहीं है। ८. एकाक्षनिवास नगर भवितव्यता अत्यन्तप्रबोध और तीव्रमोहोदय के पास से निकल कर मेरे पास आई और मुझे सब वृत्तान्त सुनाया। मैंने उत्तर में कहा- 'जैसी महादेवी की इच्छा ।' फिर जितनी संख्या में जीवों को ले जाने के लिये तन्नियोग संदेशा लाया था उतनी संख्या में मेरे जैसे अन्य जीवों सहित मुझे वहाँ से भेजा गया। उस समय भवितव्यता ने राज्यपाल प्रोर सेनापति से कहा--'मुझे और आपको इनके साथ जाना पड़ेगा, क्योंकि स्त्री के लिये पति ही देव समान है इसलिये मैं तो संसारी जीव से अलग रह भी नहीं सकती। फिर एकाक्षनिवास नगर आपकी सत्ता में है, जहाँ इनको पहले जाना है, इसलिये आपको इनके साथ रहकर इनकी रक्षा और पहरेदारी करनी होगी । अतएव हम तीनों का इनके साथ रहना उपयुक्त है, अन्यथा कोई आवश्यकता नहीं थी। भवितव्यता की इस प्राज्ञा को राज्यपाल और सेनापति ने 'जैसा आप ठीक समझे' कहकर स्वीकार किया। 8 फिर हम सब वहां से चलकर एकाक्ष निवास नगर आ पहुँचे । पहला मोहल्ला : वनस्पति इस एकाक्षनिवासन गर में पाँच बड़े मोहल्ले हैं। उन पाँच में से एक मोहल्ले की तरफ हाथ से इंगित करके तीव्रमोहोदय ने कहा--'भद्र संसारी जीव ! तू इस मोहल्ले में ठहर । यह मोहल्ला अपने असंव्यवहार नगर से बहुत ही मिलता जुलता है, अतः यहाँ रहने में तुझे आनन्द आयेगा । इसका कारण यह है कि जिस प्रकार असंव्यवहार नगर के गोलक भवन में निगोद नामक अनेक कमरे थे जिसमें अनन्त जीव पिण्डीभूत बनकर स्नेह-सम्बन्ध से मिलकर रहते थे उसी प्रकार इस मोहल्ले क. पृष्ठ १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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