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प्रस्ताव २ : एकाक्षनिवास नगर
१७७ किया गया, दलन किया गया, चूरा बनाया गया, काटा गया और मुझे जलाया गया। इस प्रकार इस मोहल्ले में मैंने महा भयंकर दुःख सहन किये। तीसरा मोहल्ला : अप्काय
पार्थिव लोगों में रहते हए जब अंतिम गोली भी घिस गई तब भवितव्यता ने मुझे एक नयो गोलो दी । इस गोलो के प्रभाव से मैं एकाक्षनगर के तीसरे मोहल्ले में गया। वहां प्राप्य नामक कुटुम्बीजन रहते हैं। पार्थिव रूप छोड़कर वहाँ जाने पर मेरा भी प्राप्य रूप हो गया । यहाँ भी भवितव्यता मेरी जब एक गोली घिस जाती तब दूसरी गोली देकर मेरा रूप परिवर्तित कर देती । इस प्रकार असंख्य काल तक मुझे प्रोस, हिम (बर्फ), फुहार, हरतनु (जलबिन्दु) और शुद्ध जल आदि अनेकविध रूपों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के भेद से विचित्र प्रकार के प्राकारों में परिवर्तित करती रही । इस मोहल्ले में रहते हुए मैंने गर्मी, सर्दी, क्षार-पीड़ा, खनन-पीड़ा और शस्त्रों से होने वाली अनेक प्रकार की वेदनाएं सही। चौथा मोहल्ला : तेजस्काय
__ आप्य लोगों में रहते हए जब मेरी गोली घिस गई तब भवितव्यता ने फिर मुझे दूसरी गोली दी जिससे में इस प्रकार के चोथे मोहल्ले में पहुंचा। इसमें तेजस्काय नामक असंख्य ब्राह्मण रहते हैं । मैं भी वहाँ वर्ण से देदोप्यमान, स्पर्श से उष्ण, प्राकृति से दाहक (जलाने वाला) और स्थान से पवित्र तेजस्कायिक (अग्नि) ब्राह्मण बन गया । वहाँ रहते हुए मेरे ज्वाला, अंगारे, ढकी हुई अग्नि, अग्निशिखा, पालात (जलती हुइ लकड़ी), शुद्धाग्नि, बिजली, उल्का, वज्राग्नि आदि कई रूप परिवर्तित हए । मुझे बुझाने आदि के नानाविध दुःख इस मोहल्ले में सहने पड़े। इस बस्ती में सूक्षम, बादर, पर्याप्त और अपयाप्त रूप धारण करते हुए मैं असंख्य काल तक भटकता रहा । पांचवां मोहल्ला : वायुकाय
तेजस्काय बस्ती के ब्राह्मणों के साथ रहते हुए जब मेरी पुरानी गोली घिस गई तब भवितव्यता ने फिर मुझे नई गोली दी । इस गुटिका के उपयोग से मैं नगर की पाँचवी बस्ती में गया। वहाँ वायवीय नामक असंख्य क्षत्रिय रहते थे। मैं भी वहाँ वायवीय क्षत्रिय बन गया । वहाँ मैं नेत्रों वाले प्राणियों के लिये अदृष्टिगोचर होने पर भी स्पर्श से पहचाना जा सकता था, और वहाँ मेरे शरीर की रचना ध्वजाकृति की बनी। वहाँ मुझे तूफान, वंटोलिया, * गुजावात, झंझावात, संवर्तकवात, धनवात, शुद्ध वायु आदि अनेक रूपों में समय-समय पर परिवर्तित किया गया। पंखे आदि शस्त्र के घात और निरोध से मुझे वहाँ विविध प्रकार के दुःख सहने पड़े । वहाँ भी पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर रूप धारण करवाकर भवितव्यता ने असंख्य काल तक मुझे भटकाया । के पृष्ठ १३३
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