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________________ प्रस्ताव २ : असंव्यवहार नगर १६६ इसके लिये तुम्हें असंव्यवहार नगर की भली प्रकार रक्षा करनी चाहिये और सदागम जितने प्राणियों को हमारे यहाँ से मुक्त कर, मेरी सत्ता से बाहर निकाल कर निर्वृत्ति नगर ले गया है उतने ही प्राणियों को तुम्हें असंव्यवहार नगर से यहाँ लाकर मेरे सत्ता स्थान पर रखना चाहिये । ऐसा करने से समग्र स्थानों पर जीव प्रचुर परिमारण में हैं ऐसा ही लगेगा । और, सदागम ने अमुक प्राणियों को छुड़ाया, किसी को इस बात का पता लगाने का अवसर भी नहीं मिलेगा। इससे भी अधिक आवश्यक बात तो यह है कि इस प्रकार नगरों को जनसंख्या में कमी नहीं होगी जिससे अपना अपयश भी नहीं होगा।" महाराज ने जब लोकस्थिति के सम्मुख उपर्युक्त प्रस्ताव रखा तब उसने भी 'बड़ी कृपा' कह कर के उस अधिकार को स्वीकार किया । यद्यपि मैं स्वयं महाराजा का अनुचर हूँ तथापि विशेषतः लोकस्थिति के अधिकार में ही हैं। इसीलिये मुझे लोग तन्नियोग के नाम से जानते हैं। अभी हाल ही में सदागम ने कितने ही लोगों को छुड़ाया है। इसलिये भगवतो लोकस्थिति ने उतने हो प्राणियों को यहाँ से ले जाने के लिये मुझे आपके पास भेजा है । यह प्राज्ञा आपने सुन ही ली, अब आप जैसा उचित समझे वैसा करें। _ 'जैसी भगवतो लोकस्थिति को आज्ञा' कहकर राज्यपाल और सेनापति ने बतलाया कि देवी ने जो आज्ञा दी है उसका पालन करने को वे तैयार हैं। उसके बाद पुनः राज्यपाल बोला। तीव्रमोहोदय--भद्र तन्नियोग ! तुम उठो और हमारे साथ चलो। यह असंव्यवहार नगर कितना विशाल है. यह तुझे दिखाते हैं। फिर तू वापस जाकर तूने जो कुछ देखा है, उसका वर्णन महाराज के समक्ष करना जिससे कि उनको अपने अधीनस्थ नगरों में जनसंख्या घटने का जो भय है, वह निर्मूल हो जायेगा। तन्नियोग- चलिये, महाशय ! जैसी आपकी आज्ञा । असंव्यवहार नगर-दर्शन ऐसा कहकर तन्नियोग खड़ा हो गया और उसी समय वे तीनों व्यक्ति असंव्यवहार नगर देखने निकल पड़े। घूमते हुए तोवमोहोदय ने हाथ उठाकर गोलक नामक असंख्य बड़े-बड़े प्रासाद (महल) बताये । प्रत्येक प्रासाद में निगोद नामक असंख्य कमरे थे । इन कमरों को विद्वान् साधारण शरीर भी कहते हैं। फिर इन कमरों में रहने वाले अनन्त जीवों को बताया । यह सब देखकर तन्नियोग दूत तो आश्चर्य चकित हो गया। फिर तीव्रमोहोदय ने पूछा, 'तूने देखा, यह नगर कितना विशाल है ?' उत्तर में तन्नियोग ने कहा, 'हाँ, मैंने बहुत अच्छी तरह से देखा ।' फिर अपने हाथ से तालो बजाकर जोर-जोर से अट्टहास करते हुए तीव्रमोहोदय ने कहा, * पृष्ठ १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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