SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा लक्ष्मी की तरह सुन्दर पत्र (पत्रवल्ली) तिलक और आभूषणों से शोभित थी। उसने जमीन तक अपने हाथ, पांव और मस्तक झका कर प्रणाम किया और फिर अंजली जोड़कर निवेदन किया 3 --'देव ! अपने सुगृहीतनामधेय महाराज कर्मपरिणाम की ओर से तन्नियोग नामक दुत आपके दर्शन करने की इच्छा से आपके पास आया है। आपकी आज्ञा की राह देखते हुए वह अभी प्रतिहार भूमि में खड़ा है। इस सम्बन्ध में आपकी क्या आज्ञा है?" प्रतिहारिणी के ऐसे वचन सुनकर ससंभ्रमपूर्वक तीव्रमोहोदय ने अत्यन्तबोध की अोर दृष्टि घुमाई, तब उसने प्रतिहारिणो को प्राज्ञा दी--'तू उसे शीघ्र प्रवेश करने दे ।' प्रतिहारिणी ने आज्ञा को शिरोधार्य कर तन्नियोग दूत को तुरन्त राज्यसभा में उपस्थित किया। लोकस्थिति की सम्पूर्ण विचारणा तन्नियोग दूत ने अपनी मर्यादानुसार विनयपूर्वक राज्यपाल और सेनापति को प्रणाम किया । उन्होंने दूत का आदर सत्कार किया और बैठने के लिये प्रासन दिया । दूत ने पुनः उचित प्रणाम किया और प्रासन पर बैठा । फिर राज्यपाल तीव्रमोहोदय ने आसन छोड़ खड़े होकर हाथ जोड़कर सिर पर लगाते हुए पूछा- अपने महाराजा, महारानी और राज्य-परिवार के अन्य लोग कुशल-मंगल से तो हैं ? तन्नियोग-जी हाँ, सब कुशलपूर्वक हैं। तीव्रमोहोदय-तुम्हें यहाँ भेजकर देवचरणों (महाराजा) ने हमें याद किया, यह उनकी हम पर बड़ी कृपा है । अब तुम्हारे पाने का क्या कारण है ? वह कहो । ___ तन्नियोग - कर्मपरिणाम महाराज के आपसे अधिक कृपापात्र और कौन है ! मेरे यहाँ आने का कारण सुनाता हूँ, सुनिये । आपको यह तो ध्यान में ही होगा कि अपने महाराजा की बड़ी बहिन लोकस्थिति है जो बहुत ही माननीय है, सब अवसरों पर परामर्श करने योग्य है, अचिन्त्य प्रभावशाली और इतनी प्रबल है कि उसके कथन का कभी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। अपनी बहिन पर प्रसन्न होकर महाराजश्री ने उन्हें सर्वकाल के लिये यह अधिकार प्रदान कर कहा-- "बहिन ! अपने से सर्वदा शत्रता रखने वाला और किसी प्रकार नष्ट न होने वाला सदागम हमारा महाशत्रु है। वह बीच-बीच में अवसर देखकर जब-तब अपनी सेना को पराजित कर, अपने राज्य में प्रवेश कर, कितने ही लोगों को बाहर निकाल कर अपनी निर्वृत्ति नगरी में लेजाकर रखता है, जो अपने लिये अगम्य है। अगर ऐसी घटनाएँ लम्बे समय तक चलती रहीं तो अपनी जनसंख्या कम हो जायेगी और अपना अपयश फैलेगा । यह बात तो किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है । अतः बहिन ! तुम्हें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये जिससे मेरे स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हो, * पृष्ठ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy