SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा महाराजा को तृण तुल्य गिनते हैं। इस विषय में अधिक क्या कहूँ ! इस दुनिया में या अन्यत्र ऐसी कोई सुन्दर वस्तु (पदार्थ) नहीं है जो कि सदागम के भक्त को प्राप्त नहीं हो सकती हो । हे सखि ! इस प्रकार मैंने तेरे समक्ष परमपुरुष सदागम का लेशमात्र संक्षिप्त परिचय दिया है । विशेष रूप से उनके सब गुरणों का वर्णन करने में तो कोई समर्थ नहीं हो सकता। [१-२८] सदागम के पास जाने की विज्ञप्ति प्रज्ञाविशाला द्वारा वणित सदागम के परिचय को सुनकर अगृहीतसंकेता को बहुत आश्चर्य हुआ। मन में शंकाएँ उठने से वह विचार करने लगी कि मेरी इस सखी ने जैसे गुणों का वर्णन किया है वैसे गुरण यदि उसमें वास्तव में हों तो उसके जैसा दूसरा कोई प्राणी विश्व में नहीं है। अतः मैं स्वयं उसे देखकर निश्चय करूं कि वह इस प्रकार के गुरगों का धारक है या नहीं ? दूसरे के कहने से, अथवा सुनी हुई बात से संदेह दूर नहीं हो सकता। [२६-३१] __ इस प्रकार विचार कर अग्रहीतसकेता ने प्रज्ञाविशाला से कहा मुझे अभी तक तो पूर्ण विश्वास था कि मेरी सखी सत्यवादिनी है पर अभी तूने जिस प्रकार से सदागम के गुणों का वर्णन किया है वह तो मुझे असंभव सा लगता है और तू मेरी दृष्टि में अनर्गलभाषिणी प्रतीत होती है। मैं मन में यह भी सोचती हूँ कि सम्भव है तेरा उससे विशेष परिचय है, जिससे उसके प्रति अपने अनुराग को लेकर तूने उसके बारे में इतना अधिक कहा है । अन्यथा क्या कर्मपरिणाम महाराजा कभी किसी से डर सकते हैं ? क्या एक प्राणी में इतने सारे गुण एक साथ कभी हो सकते हैं ? यद्यपि मुझे इतना तो विश्वास है कि मेरी प्यारी सखी कभी मुझे धोखा नहीं देगी तदपि संदेह पर प्रारूढ मेरा मन हिचकोले खा रहा है। इसलिये तुझे तेरे आत्म-परिचित परमपुरुष सदागम के दर्शन मुझे विशेष रूप से कराने की आवश्यकता है। प्रज्ञाविशाला-तेरा यह विचार मुझे भी बहुत पसंद आया। महापुरुष सदागम का तुझे भी दर्शन करना चाहिये और इसके लिए तुझे उनके पास जाना चाहिये । तदनन्तर वे दोनों सखियाँ सदागम के पास जाने के लिये चल पड़ी। ६. संसारी जीव तस्कर महाविदेह क्षेत्र में सदागम बड़े-बड़े विजय रूप अनेक दुकानों की पंक्तियों से शोभायमान और अनेक महापुरुषों से खचाखच भरा हुआ वहाँ महाविदेह रूप बाजार था। दोनों बहिनें उस बाजार में गईं, वहाँ उन्होंने अनेक प्रधान पुरुषों से परिवेष्टित भूत, भविष्य और वर्तमान के सर्वभावों का वर्णन करते हुए भगवान् सदागम को देखा । दोनों * पृष्ठ १२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy