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________________ प्रस्ताव २ : संसारी जीव तस्कर १६३ सखियां उनके पास गईं और उन्हें नमस्कार कर, उनके चररणकमलों के समीप बैठ मईं । उनकी आकृति को देखने मात्र से और उनके सामने बहुमान पूर्वक बार-बार देखने से अगृहीतसंकेता का संशय दूर हो गया और उसके चित्त में श्रानन्द की वृद्धि हुई । उसके चित्त में इस महापुरुष के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ और वह अन्तःकरण पूर्वक मानने लगी कि उनके दर्शन से उसकी आत्मा कृतार्थ हुई है । फिर उसने प्रज्ञा विशाला को लक्ष्य करके कहा अहो महाभाग्यशालिनि ! तू धन्य है । तेरा जीवन बहुत श्रेष्ठ है कि तुझे ऐसे महात्मा पुरुष का परिचय प्राप्त हुआ । मैं भाग्यहीन होने के कारण ही समस्त पापों को धो डालने वाले ऐसे महाभाग्यवान पुरुष के दर्शन से प्राज तक वंचित रही । भाग्यहीन प्रारणी इन भगवान् सदागम को प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि लक्षणहीन मनुष्यों को चिंतामणि रत्न नहीं मिल सकता । हे मृगलोचना ! इन महाभाग्यशाली सदागम का दर्शन आज मैंने तेरी कृपा से किया है जिससे मेरे सर्व पाप धुल गये हैं और मैं पवित्र हो गई हूँ । हे कमलपत्राक्षि ! तूने इन महात्मा के जिन गुणों का वर्णन मेरे समक्ष किया था, वे सब इनमें हैं, यह तो इनके दर्शन मात्र से मेरे मन में निश्चय हो गया है । इन महापुरुष का विशेष गुरण- गौरव तो मैं अभी जानती नहीं तब भी मुझे यह तो लग रहा है कि इनके जैसा अन्य कोई पुरुष इस विश्व में नहीं है । इनमें इतने सारे गुण एक साथ होंगे ? ऐसा संशय तो मुझे हुआ था, पर वह अभी इनके दर्शन से एकदम नष्ट हो गया है । तू बड़ी छिपी रुस्तम है और मेरे प्रति सच्ची सद्भावना तेरे में नहीं है, इसीलिये तूने इन पुरुषोत्तम का मुझे कभी दर्शन नहीं कराया । पर बहिन ! अब से तो मैं प्रतिदिन तेरे साथ आकर इन महात्मा पुरुष के दर्शन और इनकी उपासना किया करूंगी । हे सुन्दरंगि ! तू तो यहाँ बहुत बार आई हुई है, अत: इनमें कैसे-कैसे गुण हैं, इनका वास्तविक स्वरूप क्या है, इनका आचार कैसा है, इनकी अंत कररण पूर्वक श्राराधना किस प्रकार की जा सकती है, आदि सब बातें तू तो जानती है परन्तु हे मितभाषिणी ! यह सब तुम्हें मुझे भी बताना पड़ेगा जिससे कि मैं भी इन परमपुरुष की आराधना करके तेरे जैसी बन सकू ं । [१-१४] प्रज्ञाविशाला - बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, प्यारी सखि ! यदि तू इस प्रकार करेगी तो मेरा परिश्रम सफल हो जाएगा । हे सुलोचना ! तेरे विशेष ज्ञान और वचन - कौशल को धन्य है । तेरी कृतज्ञता प्रकट करने की वृत्ति भी प्रशस्य है । इस सदागम का ज्ञान तुझे न होने से तू इनको नहीं पहचानती थी पर अब सचमुच तू इस विषय में योग्य हो गई लगती है । इस प्रकार यदि तू प्रतिदिन मेरे साथ विचार करेगी तो यद्यपि अभी तो तू परमार्थ को नहीं जानती, पर धीरे-धीरे तू परमार्थ तत्त्व की पूर्णरूपेण ज्ञाता बन जायेगी । इस प्रकार बातचीत करते हुए उन दोनों सखियों को बहुत आनन्द मिला । फिर उन्होंने सदागम महात्मा को * पृष्ठ १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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