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________________ प्रस्ताव २ : कर्मपरिणाम और कालपरिणति १४७ नहीं है। इसके विपरीत इसको हंसी-मजाक भी बहुत पसन्द है। वह स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है और लोभ आदि योद्धाओं से घिरा रहता है । वह नाट्यकला में पूर्ण पारंगत और अत्यन्त विचक्षण है। वह अपने मन में अभिमानपूर्वक ऐसा मानता है कि उसके जैसा मल्ल (योद्धा) सकल विश्व में दूसरा कोई नहीं है और जब किसी प्राणी को बलात् प्राघात पहुँचाने के लिए कमर कस लेता है तब किसी की तनिक भी अपेक्षा नहीं करता और अनेकों प्राणियों को निर्धन बना देता है। कभी हँसी करने का मन हो तो यह सभी प्राणियों को विचित्र प्रकार से त्रस्त कर, उनसे अपने सन्मुख नाटक करवाता है और उनको हो रही पीडा को देखकर स्वयं आनंदित होता है । यद्यपि ये सभी पीडित लोग इससे बहुत बड़े हैं किन्तु इसके प्रबल प्रताप को न चाहते हुए भी उन्हें वह सब कुछ करना पड़ता है, जो वह कहता है। [१-६] किसी समय कर्मपरिणाम राजा कई लोगों को नारकी के वेष में अनेक प्रकार की वेदनाओं से दुःखी और पुकार मचाते देखकर प्रसन्नता से बारम्बार झूमता रहता है। जैसे-जैसे इन प्राणियों को महादुःखों से पीडा पाते देखता है वैसेवैसे मन में अति सन्तुष्ट और उल्लसित होता है। अभिमानवश कभी यह राजा, जो लोग भयभीत होकर उसकी आज्ञा मानने को सदा तत्पर रहते हैं उन्हें आदेश देता है, "अरे प्राणियों ! इस रंगभूमि पर तुम तिर्यंच का आकार धारण कर ऐसा सुन्दर नाटक तुरन्त करो जिनसे मेरा मन प्रसन्न हो।" वे प्राणी कोवे, गधे, बिल्ली, चूहे, सिंह, चोता, बाघ, हिरण, हाथी, ऊँट, बैल, कबूतर, बाज, जू), कीड़ा, कीड़ा और खटमल का रूप धरकर और ऐसे अनेक प्रकार के तिर्यंच के रूप धारण कर महाराज को प्रसन्न करने के लिये विविध प्रकार के अत्यधिक हास्योत्पादक नाटक दिखाते हैं और महाराजा उन्हें नचवाता है। कई प्राणी कुबड़े मनुष्य का, कई वामन का कई गूगे, अन्धे, बहरे, लकड़ी के सहारे चलने वाले वृद्ध, असहाय आदि विचित्र प्रकार के मनुष्य वेष धारण कर नाटक के पात्र बनकर नाटक करते हैं। कई प्राणियों से देवता का अभिनय करदाता है और वे परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, शोक, उच्च देवों से भय और त्रास पा रहे हों, ऐसा दिखाते हैं। इस प्रकार वे प्राणी नये-नये वेष धारण कर भिन्न-भिन्न प्रकार के पात्र बनकर नाटक दिखाते हैं जिसे देखकर कर्मपरिणाम महाराज प्रानन्दित होते हैं । [१-६] स्वेच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाले स्वच्छन्द महाराज पुनः नाटक देखने की अभिलाषा होने पर लोगों से कुछ अच्छे वेष धारण करवाते हैं और पात्रों के लिये फिर से भिन्न प्रकार को योजना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार यह महापराक्रमी राजा प्राणियों को अनेक प्रकार से त्रास देता रहता है, परन्तु त्रास से उन बेचारे प्राणियों की रक्षा कर सके, ऐसा कोई प्रभावशाली व्यक्ति उनको नहीं मिल पाता । वे महाराज तो इतने स्वतन्त्र और अपनी इच्छानुसार काम करने वाले स्वेच्छाचारी हैं कि उन्हें जो करने की इच्छा हो, वह करते हैं। उनके पास कोई प्रार्थना भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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