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उपमिति-भव-प्रपंच कथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासूदेव और बलदेव हए हैं, होंगे और कितने ही वर्तमान में भी विद्यमान हैं। यह नगरो अनन्त गुरणों से भरी हुई होने से इस लोक और परलोक में दुर्लभ है। सभी शास्त्रों में इस प्रशंसित नगरी का वर्णन है। ऊँचे-नीचे स्थानों में चलकर जब प्राणी थक जाता है तब इस नगरी में आकर परम निर्वृत्ति प्राप्त करता है। इस नगरी के लोग नम्र, बुद्धिमान्, पवित्र और भाग्यवान हैं, अतः धर्म के अतिरिक्त कुछ भी उनके मन में स्थान प्राप्त नहीं करता। इस नगरी की स्त्रियाँ अशिष्ट और निम्नस्तर के कार्यों को छोड़ देने के लिये सर्वदा तत्पर रहती हैं और पुण्यशाली बनकर जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित धर्म का निरन्तर सेवन करती हैं । इस नगरी का अधिक क्या वर्णन करू ? संक्षेप में कहूँ तो स्वर्ग, नरक और मृत्युलोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो इस नगरी में भली प्रकार रहने वाले प्राणियों को प्राप्त न हो । यह नगरी रत्नाकर से परिपूर्ण, विद्या की उत्तम भूमि, मन और नेत्र को आनन्द देने वाली, दुःख-समूह का नाश करने वाली, सर्व प्रकार के आश्चर्यों से भरपूर, उत्तमोत्तम विशेष वस्तुओं से परिपूर्ण, महात्मा मुनियों से व्याप्त, सुश्रावकों से अलंकृत, तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से समस्त भव्य प्राणियों को संतोष देने वाली, भव्य प्राणियों के मोक्ष का कारण रूप और पापी प्राणियों के संसार को बढ़ाने वाली है। पुण्य, पाप, जीव, अजीव आदि तत्त्व हैं या नहीं ? यदि हैं तो कैसे
आकार में हैं ? क्यों हैं ? आदि विषयों पर विशेषतया तार्किक (तर्कपूर्ण) विचार इसी नगरी में होता है। जो अधम प्राणी इस नगरी में आकर भी सम्यक् दर्शन
आदि गुणों से नहीं जुड़ते, उन्हें लोग भाग्यहीन कहते हैं । इस नगरी के अतिरिः" स्वर्ग, नरक और मर्त्य तीनों लोकों में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों पुरुषार्थों की सम्पूर्ण रूप से साधना की जा सकती हो।
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२. कर्मपरिणाम और कालपरिणति
उपर्युक्त वरिणत मनुजगति नगरी में अतुल बल पराक्रमी कर्मपरिणाम नामक महाराजा राज्य करता है। अपने पराक्रम से उसने स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर रखी है। इसकी शक्ति का प्रचण्ड तेज इतना प्रबल है कि इन्द्र भी उसे रोक नहीं सकता । यह राजा अपने प्रचण्ड प्रताप को सर्वत्र फैलाने की इच्छा से सब नीतिशास्त्रों का उल्लंघन कर सम्पूर्ण संसार की ओर तृण के समान हिक्कार की दृष्टि से देखता है। यह राजा प्राणियों के प्रति सभी अवस्थानों में नितान्त निर्दय (दया रहित) है, अनुकम्पा रहित है । वह जो दण्ड देता है उसकी क्रियान्विति में किसी प्रकार की अपेक्षा का कोई स्थान * पृष्ठ १०७
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