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________________ तिर्यग-गति वर्णन १. मनुजगति नगरी* इस लोक में सुमेरु के समान अनादि काल से प्रतिष्ठित, समुद्र के समान महासत्व-सेवित, कल्याण-परम्परा के समान मनोरथ पूर्ण करने वाली, तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित दीक्षा के समान सत्पुरुषों को प्रमोद देने वाली, समरादित्य कथा की तरह अनेक वृत्तान्तों से भरपूर, त्रैलोक्य विजेता के समान श्लाधा प्राप्त और सुसाधुओं की क्रिया के समान पुण्यहीन प्राणियों को अति दुर्लभ ऐसी मनुजगति नामक नगरी है। यह नगरी धर्म को उत्पत्ति भूमि है, अर्थ का मन्दिर है, काम का उत्पत्ति स्थान है, मोक्ष का कारण है और पंच कल्याणक आदि प्रसंगों पर होने वाले महोत्सवों का स्थान है। इस नगरी में विचित्र प्रकार के सुवर्ण-रत्नों की दीवारों से शोभित अति मनोहर मेरु पर्वत जैसे उन्नत और विशाल देवालय हैं जिनमें अनेक देवता रहते हैं। इस नगरी में अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओं का स्थान रूप होने से देवलोक को भी नीचा दिखाने वाली, क्षितिप्रतिष्ठित आदि अनेक पुरों (छोटे नगरों) से शोभित, भरत आदि नाना प्रकार के मोहल्ले और आसपास में कुलशैल के आकार को धारण किये हुए अत्युच्च अनेक गढ़ (किले) हैं। इस नगर के मध्य में लम्बी आकृति वाली, भिन्नभिन्न विजयरूप दुकानों से शोभित, अनेक महापुरुषों की टोलियों से व्याप्त महाविदेह रूप बाजार है ; जहाँ मूल्य देकर शुभ-अशुभ वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं। इस नगरी के चारों ओर पर्वत के आकार का धारण करने वाला मानुषोत्तर नाम का अति उच्च गढ़ है। वह इतना ऊँचा है कि चन्द्र-सूर्य की गति भी रुक जाती है और परचक्रभय (शत्रु सेना के भय) से पूर्णतया मुक्त है। इस ऊँचे गढ़ से कुछ दूरी पर उसके चारों ओर समुद्र जैसी मोटी खाई है । इस नगरी में विबुधों द्वारा निमित भद्रशालवन रूपी अनेक सुन्दर बगीचे हैं। इस नगरी में नाना प्रकार के प्राणियों रूपी जल को प्रवाहित करने के लिये अनेक नदियाँ रूपी चौड़ी-चौड़ी गलियाँ (सड़के) हैं। इस नगर में अनेक नदियों के संगम का आधारमत और अनेक सड़कों से मिलने वाले लवणोदधि और कालोदधि समुद्ररूप दो राजमार्ग हैं। इन दो राजमार्गों से • विभाजित जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड, अर्द्ध पुष्करद्वीप नामक तीन बड़ी बस्तियाँ हैं। इस नगरी में लोगों के सुख का कारण अपने-अपने योग्य स्थान पर नियुक्त कल्पवृक्ष जैसे स्थानान्तर (छोटे-छोटे) राजागण हैं। करोड़ों जिह्वानों से भी इस नगरी का वर्णन करना सम्भव नहीं है, फिर मेरे जैसे सामान्य बुद्धि वाले की तो क्षमता ही क्या है ? इस नगरी में अनन्त * पृष्ठ १०५ * पृष्ठ १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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