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________________ प्रस्ताव : १ पीठबन्ध १३६ है और उसको स्वाधीन होकर सहजभाव से तुम सुन सकते हो । पूर्व समय के महापुरुषों द्वारा प्रणीत कथाओं तथा प्रबन्धों का विशुद्ध भाव पूर्वक श्रवण मात्र से रागादि व्याधियाँ सम्यक् रीत्या नष्ट हो जाएँ यह भी सम्भव है । उसी प्रकार इस उपाय से संसार समुद्र को तैरने के इच्छुक सब सज्जन पुरुष मेरे ऊपर कृपारस से परिपूर्ण अनुग्रह कर, मेरे द्वारा रचित यह कथा - प्रबन्ध भी सुनने योग्य समझकर सुनेंगे ऐसी मुझे पूर्ण आशा है । उपसंहार ग्रन्थ के प्रारम्भ में जो निष्पुण्यक का दृष्टान्त दिया गया है उसके प्रत्येक पद का उपनय यहाँ विस्तार के साथ दिया गया है । कदाचित् बीच-बीच में यदि किसी पद का उपनय नहीं दिया गया हो या रह गया हो तो आगे-पीछे के प्रसंग को लक्ष्य में रखकर स्वकीय बुद्धि से योजना कर लें । जो संकेत समझ गये हों उनको उपमान बताने के बाद उपमेय को समझना कठिन नहीं होता । अर्थात् कथा के भीतरी सकेत (आशय) को जो समझ गए हों उनके लिए उपमान का कथन करने पर उसके आधार से उपमेय (रहस्यार्थ, तात्पर्यायार्थ) को समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती; वे स्वतः ही समझ जाते हैं । इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में उपमान रूप में कथा की रचना की गई है। अब आगे जिस कथा की रचना कर रहा हूँ उसमें यथासाध्य एक भी पद का उपमेय के बिना प्रयोग नहीं होगा; परन्तु इस प्रसंग में उपनय को किस पद्धति से विस्तार के साथ योजित किया जाय इस रहस्य से आप सब भलीभांति परिचित हो ही गए हैं । फलत: इस कथा के अग्रिम प्रस्तावों में श्रापकी सुखपूर्वक गति ( प्रवृत्ति) हो सकेगी । ग्रन्थ के उपोद्घात रूप में इससे अधिक लिखने की अब कोई आवश्यकता नहीं रही । इह हि जीवमपेक्ष्य मया निजं, यदिदमुक्तमदः सकले जने । लगति सम्भवमात्रतया त्वहो, गदितमात्मनि चारु विचार्यताम् ||१|| मैंने मेरे जीव की अपेक्षा ( माध्यम) से यहाँ जो कुछ कहा है वह प्राय: कर सब जीवों के साथ भी घटित होता है । जिन उपयुक्त घटनाओं का वर्णन किया गया है, वे घटनाएँ आपके साथ घटित होती हैं या नहीं ? इस पर आप अच्छी तरह से विचार करें | Jain Education International निन्दात्मनः प्रवचने परमः प्रभावो, रागादिदोषगणदौष्ट्यमनिष्टता च । प्राक्कर्मणामतिबहुश्च भवप्रपञ्चः, प्रख्यापितं सकलमेतदिहाद्यपीठे ||२|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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