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________________ १३८ उपमिति भव- पंच कथा का परिश्रम सफल हुआ, ऐसा मैं समभ्रूगा । यही सोचकर यथानाम और यथागुण वाली उपमिति भव-प्रपंचा कथा नामक कथा की (जिसमें संसार के प्रपंच को उपमान के रूप में दिखाया है ) मैंने (इस जीव ने) रचना की है । इस कथा में प्रकृष्ट और प्राञ्जल शब्दार्थ न होने से अर्थात् उच्च कोटि की रचना न होने से इसे स्वर्णपात्र में स्थापित की हुई नहीं कह सकते, परन्तु काष्ठपात्र में रखने योग्य मानी जा सके ऐसी मैंने संयोजना की है । इस ग्रन्थ में मैंने ज्ञान दर्शन चारित्र रूप तीनों औषधियों का मेरे साधारण शब्दों में महत्व दिखाने का प्रयास किया है । अभ्यर्थना हे भव्य प्राणियों ! अब मैं आप सब से अभ्यर्थना करता हूँ उसे प्राप सुनें । उस भिखारी सपुण्यक द्वारा राजमार्ग में रखे हुए काष्ठपात्र में से तीनों औषधियों को ग्रहण कर जो रोगी उनका अच्छी तरह से सेवन करते हैं वे नीरोगता को प्राप्त करते हैं । साथ ही उस काष्ठपात्र में रखी हुई श्रौषधियों का ग्रहण उचित भी है; क्योंकि ऐसा करने से जैसे उस सपुण्यक ( पहले का भिखारी ) पर उपकार होता है और वह ऐश्वर्यशाली बन जाता है वैसे ही मेरे जैसे जीव पर जिनेश्वरदेव की कृपापूर्ण दृष्टि पड़ने के कारण और सद्गुरु के चरण कमलों के प्रसाद से तथा उनके प्रताप से प्रकटित सद्बुद्धि के श्राविर्भाव से मैंने इस कथा में जो ज्ञान दर्शन चारित्र की रचना की है उसे जो भव्य प्रारणी ग्रहण करेंगे उनके राग-द्वेषादि भावरोग अवश्य ही नष्ट हो जाएँगे । कारण यह है कि पदार्थ का जो स्वरूप कथनीय है वह कहने वाले के गुण-दोषों की अपेक्षा रखकर स्वेच्छित साध्य की प्राप्ति में प्रवर्तित नहीं होता । अर्थात् कथनीय बात यदि उत्तम, योग्य और यथास्थित है तो काफी है, उस साध्य की प्राप्ति में उसका कथन करने वाले के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । जैसे कोई भूख से पीडित होने के कारण अत्यन्त दुर्बल सेवक स्वामी की आज्ञा से समस्त परिवार के लिए बनाई हुई भोजन सामग्री उन लोगों के खाने के लिए परोसगारी करता है तो वह परोसा हुआ भोजन स्वामी और परिवार की भूख मिटाता है, न कि उस सेवक की भूख को । इससे स्पष्ट हो जाता है कि कथनीय विषय के स्वरूप का जो यथास्थित रूप कथन करने में श्राता है उसमें वक्ता के निजी दोषों का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं होता । वैसे ही मैं तो स्वयं ज्ञान दर्शन चारित्र की दृष्टि से अपूर्ण हूँ फिर भी, भगवान् ने ग्रागम ग्रन्थों में जिस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र का प्रतिपादन किया है तदनुसार ही मैंने इस ग्रन्थ में भी निवेदन ( प्रतिपादन ) किया है । इसको जो भव्य सत्व ग्रहण करेंगे उनकी रागादि भावरोग रूप भूख शान्त होने से वे अवश्य ही निरोगी बनेंगे, क्योंकि यह उनका स्वरूप ही है । ग्रन्थकर्त्ता का निवेदन भगवत् सिद्धान्त में कथित एक पद भी शुद्धभाव पूर्वक श्रवरण किया जाए तो वह समस्त रागादि भावरोगों के जाल को समूल नाश करने में समर्थ होता ॐ पृष्ठ १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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