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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
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सर्वज्ञ-शासन में सर्वविरति चारित्रधारी श्रमण के रूप में रहता हा यह जीव योग्य देश और योग्य काल की अपेक्षा से एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण (विचरण) करते हुए देशना के माध्यम से विस्तार पूर्वक भव्य प्राणियों को ज्ञान दर्शन का मार्ग बतलाता है। इस कथन को सपुण्यक द्वारा की गई औषधिदान घोषणा के तुल्य समझे। ज्ञानादि ग्रहरणकर्ता के प्रकार
जब यह जीव ज्ञान दर्शन चारित्र के मार्ग का उपदेश देता है तब उस उपदेष्टा से हीनबुद्धि वाले (मन्दमति) प्राणी कदाचित् उस देशना से ज्ञानादि ग्रहण करते हैं, परन्तु जो व्यक्ति महामति (जड मूर्ख) होते हैं उनको उपदेष्टा प्राणी के पूर्वावस्था के दोषों का ध्यान होने से उसके उपदेश को हास्यास्पद समझते हैं। यह जीव उन प्राणियों की दृष्टि में सर्वथा तिरस्कार योग्य होने पर भी महात्मा गण उसका अनादर नहीं करते; क्योंकि महात्माओं का हृदय विशाल होता है अर्थात् महात्माओं का यह सहज गुरण होता है । इसमें इस प्राणी की कोई विशेषता या उसका अपूर्व गुण नहीं है । ग्रन्थ-व्यवस्था
यह जीव पुनः विचार करता है कि अभी तक तो मेरा उपदेश पूर्णतः मन्दमति ही ग्रहण करते हैं, बुद्धिमान नहीं । मेरा ज्ञानादि सम्बन्धी उपदेश सवजनग्राह्य कैसे हो सकता है ? इसके लिये मुझे प्रयत्न करना चाहिये । * पश्चात् स्वयं की सद्बुद्धि के साथ ऊहापोह करते हुए उसे मार्ग दिखाई पड़ता है। अहो ! मैं इन समस्त प्राणियों को साक्षात् में इस प्रकार उपदेश देता हूँ किन्तु उस उपदेश को ये लोग ग्रहण करें ऐसा दिखाई नहीं देता (क्योंकि ये लोग मेरी पूर्व जाति और योग्यता को ही सामने रखकर मुझे देखते हैं ।) अतएव अब मैं ऐसा करूँ कि सर्वज्ञ-दर्शन के सारभूत ज्ञान दर्शन चारित्र का मैं जिन सब लोगों के सन्मुख प्रतिपादन करना चाहता हँ उन लोगों के जानने योग्य (ज्ञेय-ज्ञान), श्रद्धान करने योग्य (दर्शन) और अनुष्ठान करने योग्य (चारित्र) अर्थ की एक ग्रन्थ के रूप में रचना करू और उस ग्रन्थ में विषय और विषयी के अभेद को स्पष्ट करूं। ग्रन्थ में ऐसी व्यवस्था (पद्धति) अपना कर इस ग्रन्थ को मैं मौनीन्द्र-शासन के अनुयायी भव्यजनों के समक्ष खोलकर (स्वतन्त्र रूप से) रख दूं। ऐसा करने से इस ग्रन्थ में प्रतिपादित ज्ञानादि का स्वरूप सर्वजनग्राह्य हो सकेगा। मैं ग्रन्थ बनाता हूँ (वह यदि सब लोगों के लिए उपयोग पोर बोधदायक हो सके तो अत्युत्तम है ।) यह ग्रन्थ सर्वजनोपयोगी न भो हो तब भी यदि समस्त प्राणियों में से एक प्राणी भी इस ग्रन्थ का अध्ययन कर शुद्ध भाव पूर्वक परिणमित हो जाता है, सन्मार्ग पर आ जाता है तो मेरा (इस जीव का) ग्रन्थ-रचना
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