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________________ १३६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा की बात सुनकर सद्बुद्धि ने कहा- 'भद्र ! पहले की तेरी दरिद्रता को देखकर ये मूर्ख लोग तेरा अनादर करते हैं और तेरे हाथ से दी हुई औषधियाँ ग्रहण नहीं करना चाहते । यदि तेरी यही अभिलाषा है कि सभी प्राणी तुझ से औषधि ग्रहण करें तो इसका एक ही उपाय मेरे ध्यान में आता है, वह यह है कि राजमार्ग में जहाँ लोगों का अधिक आवागमन होता है वहाँ एक विशाल काष्ठपात्र में तीनों औषधियाँ रखकर, अपने मन में विश्वास रखकर तू दूर बैठ जा। इसको कौन ग्रहण करेगा, इसकी चिन्ता तू क्यों करता है ? जिन्हें भी आवश्यकता होगी वे वहाँ किसी को न देखकर चुपचाप अपने आप ही औषधि ग्रहण कर लेंगे। तुझे इससे क्या कि किसने ग्रहण की? उनमें से यदि कोई एक भी सच्चा पुण्यवान और गुणवान प्राणी तेरी औषधि ले जाएगा तो तेरा मनोरथ परिपूर्ण हो जाएगा।' सपुण्यक ने सद्बुद्धि के कथनानुसार वैसा ही किया।" इस जीव के साथ भी इसी प्रकार घटित होता है, तुलना करिये : परोपकार और संकोच इस जीव को दान देने की इच्छा होते हुए भी उसे रत्नत्रयी इच्छुक कोई योग्यपात्र न मिलने के कारण वह शान्त चित्त से सद्बुद्धि पूर्वक विचार करता है। विचारणा करते हुए उसे यह प्रतीत होता है कि मौन धारण कर (चुपचाप) बैठे रहने से किसी और को ज्ञान दर्शन चारित्र प्रदान किया जा सके यह तनिक भी संभव नहीं है । अन्य प्राणियों को रत्नत्रयी का दान देने के समान अन्य कोई परोपकार नहीं है, परमार्थतः यही परोपकार है । इह लोक में सन्मार्ग प्राप्त हो जाए और जन्मान्तरों में भी अबाधित रूप से प्राप्त होता रहे ऐसी अभिलाषा वाले प्राणियों को सर्वदा परोपकार परायण होना चाहिये; क्योंकि उक्त परोपकार का यह सहज गुण है कि वह पुरुष में श्रेष्ठ गुणों के उत्कर्ष का आविर्भाव करता है। पुनश्च, यदि सम्यक् रीति से परोपकार किया जाए तो वह धीरता में वृद्धि करता है, दीनता का हरण करता है, उदार चित्त बनाता है, स्वार्थीपन नष्ट करता है, मन को निर्मल करता है और प्रभुता को प्रकट करता है। ऐसा होने से परोपकार परायण पुरुष के वीर्य (पराक्रम) का विकास होता है अर्थात् परोपकार में विशेष रूप से प्रवृत्ति होती है और उसके मोहनीय कर्मों का नाश होता है । फलतः वह जीव जन्मान्तरों में भी उत्तरोत्तर श्रेष्ठ सन्मार्ग को प्राप्त करता रहता है और उस सन्मार्ग से कदापि पतित नहीं होता । अतएव यदि स्वयं ज्ञान-दर्शनादि का ज्ञाता हो तो भी अन्य प्राणियों के सन्मुख ज्ञानादि के यथातथ्य स्वरूप का प्रकाश करने के लिये यथाशक्ति प्रवृत्ति अवश्य ही करनी चाहिये और इस सम्बन्ध में उसे दूसरे लोगों की अभ्यर्थना या याचना की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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