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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध १३५ यह दरिद्री जीव प्रत्यक्ष उदाहरण है। यदि ऐसा न हो तो यह जीव अपने समस्त प्रकार के जघन्य कृत्यों को भूलकर ऐसा झूठा अभिमान क्यों करे ? ऐसा मिथ्याभिमान हो जाने पर यह जीव विचार करता है - 'जब कोई ज्ञान दर्शन चारित्र का इच्छक प्राणी विनय पूर्वक मुझ से पूछेगा तब मैं उसके सन्मुख रत्नत्रयी के स्वरूप का प्रतिपादन करूंगा, अन्यथा नहीं।' इस प्रकार के अहंकारात्मक विचारों में फंसा हुआ जीव मौनीन्द्रशासन (जिनशासन) में बहुत समय तक रहता है किन्तु उसकी इच्छानुसार विनय सहित कोई भी प्राणी उससे प्रश्न करने के लिए उसके पास नहीं प्राता है; क्योंकि जैनेन्द्र-शासन में निवास करने वाले जीव स्वतः ही उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन चारित्र के विशेष रूप से धारक होते हैं, फलतः वे बाहरी उपदेश की अपेक्षा नहीं रखते। कितने ही प्राणी तुरन्त में ही स्वकीय कर्म-विवर (मार्ग) प्राप्त होने से इस शासन में प्रविष्ट हुए हैं और जिनकी मनोवृत्ति सन्मार्ग की ओर अभिमुख है तथा जो अभी तक विशिष्ट ज्ञान से रहित हैं वे भी इस घमण्डी जीव की अोर दृष्टिपात भी नहीं करते; क्योंकि भगवत् शासन में और भी अनेक महाबुद्धिशाली, सद्बोध प्रदान करने में अत्यन्त पटु गीतार्थ पुरुष होते हैं। ऐसे गीतार्थों के पास जाकर राजमन्दिर में तत्काल प्रविष्ट प्राणी इच्छानुसार किसी प्रकार के क्लेश के बिना ही सहजता से ज्ञानादि की अभिवृद्धि करते हैं। फलतः यह जीव ज्ञान प्राप्ति की इच्छा वाला कोई प्राणी न मिलने पर भी गर्व के कारण स्वयं को उच्चकोटि का मानता हुया अपना बहुत सा समय व्यर्थ में ही बिता देता है किन्तु स्व-अर्थ का किसी भी प्रकार से पोषण नहीं कर पाता । [ ४० ] हास्यास्पद स्थिति और सद्बुद्धि द्वारा समाधान ___आगे का वृत्तान्त मूल कथा-प्रसंग में विस्तृत रूप से दिया जा चुका है जिसका सारांश निम्न है :-"औषधेच्छुक कोई भी व्यक्ति प्राप्त न होने पर एक दिन सपुण्यक ने सद्बुद्धि से इसका उपाय पूछा। सद्बुद्धि ने कहा—'भद्र ! तुम्हें बाहर निकल कर घोषणा करनी चाहिये उससे जिसको आवश्यकता होगी वह लेने आएगा, उसको देना।' सद्बुद्धि के परामर्श से वह राजकुल में उच्च स्वर में पुकारने लगा-'भाइयों ! मेरे पास तीन महागुणकारी औषधियाँ हैं, जिनको आवश्यकता हो, आकर मुझसे ले जाएँ।' इस प्रकार बोलते हुए वह घर-घर घूमने लगा। उसकी घोषणा सुनकर कितने ही इसके जैसे ही तुच्छ प्रकृति के प्राणी थे वे कभी-कभी उससे थोड़ी सी औषधि ले लेते थे। कई तुच्छ प्राणी उसको पहचान कर उसकी हँसी उड़ाते ओर कितने ही उसे पागल समझकर उसका तिरस्कार करते । ऐसी स्थिति देखकर सपुण्यक ने सद्बुद्धि को सारी स्थिति से परिचित कराया । सपुण्यक * पृष्ठ १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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