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________________ १३४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा चिन्तन करता है- 'मुझे भविष्य में भी अविच्छिन्न रूप से यह रत्नत्रयी प्राप्त होती रहे इसका मुझे उपाय करना चाहिये ।' विचार करते हुए उसे यह प्रतीत होता है कि पूर्वभवों में मैंने किसी को दान दिया होगा उसी के फलस्वरूप मुझे यहाँ रत्नत्रयी प्राप्त हुई है। ऐसा अनुभव करता हा वह पुन: चिन्तन करता है कि तब फिर मुझे इस ज्ञानादि रत्नत्रयी का योग्य अधिकारियों (सत्पात्रों) को दान करते रहना चाहिये जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो और भविष्य में मुझे यह रत्नत्रयी अनवरत रूप से प्राप्त होती रहे। [ ३६ ] पहले कथा में कहा जा चुका है :-"उसके मन के विचार को सुस्थित महाराज ने सातवीं मंजिल में बैठे-बैठे ही जान लिया। धर्मबोधकर को वह अतिशय प्रिय लगा, तद्दया ने उसे बधाई दी, सब लोगों ने उसकी प्रशंसा की और सद्बुद्धि का तो वह अत्यन्त प्रिय हो गया। इस स्थिति को जानकर उसे स्वयं को लगने लगा कि 'मैं पुण्यवान् हूँ, अतः लोगों में उत्तम स्थान को प्राप्त हुअा हूँ । अब कोई भी मेरे पास आकर ये तीनों औषधियाँ माँगेगा तो मैं अवश्य दूंगा।' ऐसे विचार से वह प्रतिदिन इच्छापूर्वक किसी आगन्तुक की प्रतीक्षा करता रहता था। अत्यन्न निगुणी प्राणी की भी जब महात्मा प्रशंसा करते हैं तब वह इस अधम दरिद्री की तरह अभिमानी हो जाता है। वहाँ राजमन्दिर में रहने वाले सभी व्यक्ति नित्य तीनों औषधियों का सेवन करते थे, उनके सेवन के प्रभाव से वे चिन्तारहित होकर परम ऐश्वर्यशाली हो गए थे। निष्पुण्यक जैसे कुछ व्यक्ति जिन्होंने थोड़े समय पहले ही राजभवन में प्रवेश किया था, वे तीनों औषधियाँ अन्य लोगों से अच्छी मात्रा में अच्छी तरह से प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजभवन में कोई भी उसके पास औषधि लेने नहीं आता था और वह औषध-इच्छुक व्यक्ति की राह में आँखें बिछाये बैठा रहता था।" इस जीव के साथ भी इसी प्रकार बनता है, देखियेमिथ्याभिमान का फल अन्य प्राणियों को रत्नत्रयी औषध का दान देने की इच्छा करने वाला जीव सोचना है-'भगवान् ने मेरे ऊपर कृपादृष्टि की है, सद्धर्माचार्य की दृष्टि में मेरा मान है अर्थात् मैं उनका मानीता हूँ, आचार्यदेव की दया मुझ पर अनुग्रह करने के लिए सर्वदा तत्पर रहती है, अांशिक रूप में मेरी सद्बुद्धि का विकास हो गया है और सब लोग मेरी श्लाघा करते हैं, अतएव सपुण्यक अर्थात् अधिक पुण्योदय के कारण मैं जनसमूह में बहुत श्रेष्ठ हो गया हूँ।' उक्त विचारों से ग्रस्त होकर वह मिथ्याभिमान धारण करता है। अत्यन्त निर्गुणी प्राणी की भी जब महात्मा गण प्रशंसा कर देते हैं तब वह अपने मन में घमण्ड करने लगता है। उसका * पृष्ठ १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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