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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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विशिष्ट गुण प्रादुर्भूत होते हैं । यद्यपि अनेक पूर्वजन्मों में संचित कर्मसमूहों के प्रभाव से अनेक रागादि भावरोग विद्यमान होने के कारण वह प्राणी अभी तक पूर्णरूप से नीरोग (स्वस्थ ) नहीं हुआ था तथापि वह पूर्व भावरोगों की मन्दता का अनुभव करता है । फलस्वरूप इस जीव का जो आज तक अशुभ प्रवृत्तियों की ओर अनुराग था वह समाप्त हो गया और उसके स्थान पर शुभ प्रवृत्ति की ओर प्रीति बढ़ने से उसे आनन्दोल्लास का अनुभव होने लगा ।
रोगनाश
तीनों औषधियों के सेवन के प्रभाव से जैसे उस दरिद्री के चिरकालीन तुच्छता, पराक्रमहीनता, लुब्धता, शोक, मोह, भ्रम आदि विकार नष्ट हो गये और वह किंचित् उदारचित्त बन गया वैसे ही यह जीव भी ज्ञान दर्शन चारित्र की सेवना ( आराधना ) के प्रभाव से अनादिकालीन संस्कारों से प्राप्त तुच्छता आदि विकारभावों को नष्ट करता है, इससे इसका मानस भी किंचित् उज्ज्वल और उदार हो जाता है ।
[ ३८ ]
श्रौषधदान एवं कथोत्पत्ति-प्रसंग
पहले कथा प्रसंग में कह चुके हैं :- “एक दिन अत्यन्त प्रसन्न चित होकर उसने सद्बुद्धि से पूछा - 'भद्र े ! ये तीनों सुन्दर औषधियाँ मुझे किस कर्म के योग से मिली होंगी ?' सद्बुद्धि ने कहा- भाई ! पहले जो दिया जाता है, वही वापस मिलता है, ऐसी लोक कहावत है । इससे ऐसा लगता है कि पहले कभी तूने अन्य किसी को ये वस्तुएँ दी होंगी।' सद्बुद्धि का उत्तर सुनकर सपुण्यक सोचने लगायदि किसी को देने से ही वापस मिलती हों तो मैं अनेक प्रकार से सकल कल्याणकारी इन तीनों औषधियों का किन्हीं योग्य पात्रों को प्रचुर दान दूँ, जिससे भविष्य में अगले जन्मों में वे मुझे अक्षय रूप में मिलती रहें ।" इसी प्रकार इस जीव के साथ भी बनता है । जैसे
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दान और प्राप्ति का सम्बन्ध
ज्ञान दर्शन चारित्र का विशिष्ट सेवन ( श्राचरण ) करने से प्रशमानन्द का अनुभव करता हुआ यह जीव सद्बुद्धि के प्रभाव से इस प्रकार विचार करता है'समस्त प्रकार के कल्याणों की परम्परा को प्राप्त कराने वाली यह ज्ञानादि रत्नत्रयी अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी मुझे अंश रूप में प्राप्त हुई है । यह पूर्वकालीन शुभ प्रवृत्तियों के बिना प्राप्त हो नहीं सकती, अतएव यह निश्चित है कि मैंने पूर्वजन्मों में - किसी प्रकार के श्रेष्ठ प्राचरण या सत्कार्य किए होंगे, उसी के फलस्वरूप इस जन्म में यह ज्ञानादि रत्नत्रयी मुझे प्राप्त हुई है ।' इन विचारों में गोते लगाता हुआ वह पुनः
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