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________________ १३२ उपमिति-भव-प्रपच कथा विकारजन्य भावों का निर्दलन किया है । सच है कि महान् पुण्यशाली प्राणी ही इस प्रकार का कार्य कर सकते हैं । इस घटना के पश्चात् लोगों ने इस जीव का निष्पुण्यक नाम बदल कर सपुण्यक रख दिया और इसी नाम से उसे पुकारने लगे। इसका परिवर्तित सपुण्यक नाम गुणानुसार और युक्तियुक्त था । [ ३७ ] राजमन्दिर में सपुण्यक को स्थिति मूल कथा-प्रसंग में वर्णित घटनाचक्र का सारांश यह है कि : "अब वह सपुण्यक शरीर को हानि पहुँचाने वाला अपथ्य भोजन नहीं करता जिससे उसके शरीर में कोई बड़ी पीडा तो होती ही नहीं । कभी पूर्व दोष से छोटी-मोटी सहज पीडा हो भी जाती तो वह भी थोड़ी देर में ठीक हो जाती। अंजन, जल और परमान्न नामक तीनों श्रेष्ठ औषधियों का अनवरत सेवन करने से प्रतिक्षण उसके बल, धैर्य और स्वास्थ्य आदि में भी वृद्धि होने लगी। उसके शरीर में बहुत से रोग होने से वह अभी तक पूर्णतया नीरोग तो नहीं हुआ था फिर भी उसके शरीर में भारी परिवर्तन हुमा हो ऐसा दिखाई दे रहा था। अभी तक जो वह भूत-प्रेत जैसा अत्यन्त बीभत्स और कुरूप लगता था और किसी को उसके सामने देखना भी अच्छा नहीं लगता था, वह अब सुन्दर मनुष्य का आकार धारण करने लगा था। नीरोग हो जाने से वह निरन्तर आनन्दित मन वाला बन गया था।" ये सब बातें जीव के साथ भी पूर्णता समानता रखती हैं । यथाप्रात्मभाव में रमणता घर, धन, परिवार आदि द्वन्द्वों का भावपूर्वक त्याग करने के कारण रागद्वषादि विकारों से उत्पन्न होने वाली पीडा अब इस जीव को नहीं होती थी। यदि कदाचित् पूर्वसंचित कर्मों के उदय से किसी समय पीडा हो भी जाती तो वह छोटीमोटी होती और वह अधिक समय तक नहीं रहती । अब यह प्राणी किसी भी प्रकार के लोक-व्यापारों की अपेक्षा रखे बिना ही अनवरत वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा लक्षण रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करते हुए अपने सम्यग् ज्ञान की वृद्धि करता है। शासन की शोभा और उत्कर्ष बढ़ाने वाले शास्त्राभ्यास द्वारा अपने सम्यग् दर्शन को दृढ़ करता है । विविध प्रकार के उत्तम तप नियमादि का अनुशीलन कर अपने सम्यक् चारित्र को प्रात्मीभाव करता है अर्थात् उसकी जीवनचर्या चारित्रमयी बन जाती है। यहाँ इस ज्ञानत्रयी की आराधना को उक्त तीनों औषधियों का इच्छापूर्वक सेवन के सदृश समझें। इस प्रकार परिणति (विचार और आचरण) हो जाने से इस प्राणी में बुद्धि, धैर्य, स्मृति, बल आदि * पृष्ठ १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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