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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध १३१ गुरु महाराज ने जो विचार उसे बतलाये उन्हें निष्पुण्यक की परीक्षा कर दृढ़ करने के तुल्य समझे । धर्माचार्य की बात सुनकर यह जीव उनके वचनों को भावपूर्वक स्वीकार करता है। तदनन्तर सद्धर्माचाय इसकी योग्यता का भलीभांति परीक्षण कर, अपने साथ में रहे हुए गीतार्थ श्रमणों के साथ विचार-विमर्श कर, पात्र समझ कर जीव को प्रव्रज्या (दीक्षा) प्रदान करते हैं । यहाँ समस्त सम्बन्धों का त्याग पूर्वोक्त निष्पुण्यक के कुभोजन त्याग के समान समझे। इस भव में इस जीव ने जो भी पाप किये हैं उन का क्षालन करने के लिए धर्माचार्य उसे प्रायश्चित्त प्रदान कर उसके मानव जीवन को शुद्ध करते हैं। इसे यहाँ निष्पुण्यक के भिक्षापात्र को पवित्र जल से स्वच्छ करने के समान समझ । भिक्षापात्र को ही जीवितव्य (मनुष्य भाव) समझे। चारित्र (दीक्षा) प्रदान करना इसे यहाँ स्वच्छ किये हुए भिक्षापात्र को सुन्दर और स्वादिष्ट परमान्न से भर देने के समान समझे । जब सद्धर्माचार्य के उपदेश से जीव दीक्षा ग्रहण करता है तब भव्य प्राणियों के चित्त को आह्लादित करने के लिए * संघ पूजा, चैत्य पूजा आदि सन्मार्ग की प्रवृत्ति के कारणभूत महोत्सव किये जाते हैं। 'इस प्राणी को हमने संसार रूपी अटवी से पार कर दिया' इन विचारों से धर्माचार्य का मन भी संतुष्ट होता है। इन कारणों से इस प्राणी पर धर्माचार्य की दया (कृपा) भी बढ़ती जाती है तथा इस दया के प्रभाव से उसकी सद्बुद्धि भी अत्यधिक निर्मल होती जाती है। ऐसे प्रशस्य अनुष्ठानों को देखकर लोग भी प्रशंसा करते हैं और सर्वज्ञ-शासन की उन्नति भी होती है । इन सब बातों को मूलकथा के निम्नांकित श्लोक के समान समझे। धर्मबोधकरो हृष्टस्तद्दया प्रमदोद्ध रा। सद्बुद्धिर्वद्धितानन्दा मुदितं राजमन्दिरम् ।।४१७।। अर्थात् यह देखकर धर्मबोधकर भी प्रसन्न हुए, तद्दया भी हर्ष से पागल हो गई, सद्बुद्धि के आनन्द की सीमा नहीं रही और सम्पूर्ण राजमन्दिर के लोग हर्षविभोर हो गए। इस जीव को चारित्ररूपी मेरु पर्वत के विपुल भार को धारण करते देखकर भक्तिरस के निर्भर से परिपूर्ण मानस और रोमांचित शरीर वाले भव्य लोग उसकी प्रशंसा करने लगे अहो ! इसको धन्य है। यह वास्तव में कृतार्थ हो गया है। इसने अपना मनुष्य जन्म सार्थक कर दिया है। इसकी समस्त सत्प्रवृत्तियों को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सर्वज्ञदेव ने इस पर कृपापूर्ण दृष्टि की है । इस पर सद्धर्मोपदेशक धर्माचार्य की अनुकम्पा (दया) हई है। इसी कारण से इसमें सदबुद्धि जागत हुई है, सद्बुद्धि के कारण ही बाह्य (धन दि पदार्थ) और अन्तरंग (क्रोधादि कषाय) संग का त्याग किया है, ज्ञानत्रयी को अंगीकार किया है और राग-द्वेषादि * पृष्ठ ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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