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उपमिति-भव-प्रपंच कथा इस पीठबन्ध रूप प्रथम प्रस्ताव में मैंने अपनी निन्दा, सर्वज्ञ-शासन का सर्वोच्च प्रभाव, राग-द्वष आदि दोषों की दुष्टता, पूर्वकृत कर्मों की अनिष्टता और विविध प्रकार का संसार का प्रपंच आदि सब का वर्णन किया है ।
संसारेऽत्र निरादिके विचरता जीवेन दुःखाकरे, जैनेन्द्र मतमाप्य दुर्लभतरं ज्ञानादिरत्नत्रयम् । लब्धे तत्र विवेकिनाऽऽदरवता भाव्यं सदा वर्द्ध ने,
तस्यैवाद्य कथानकेन भवतामित्येतदावेदितम् ।।३।।
दुःख की खान रूप इस अनादि संसार में भ्रमण करते हुए जीव को जैनेन्द्र शासन (धर्म) की प्राप्ति होने पर भी सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्र रूप रत्नत्रयी की उपलब्धि होना अत्यधिक दुष्कर है । ज्ञानादि रत्नत्रयी प्राप्त होने पर विवेकशोल प्राणियों को प्रादर के साथ सर्वदा उसको बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिये । यही बात मैंने इस कथानक के प्रथम प्रस्ताव में आपसे निवेदन को है।
श्री सिदर्षि गणि चित उपमिति-भव-प्रपंच कथा के पीठबन्ध नामक प्रथम प्रस्ताव का हिन्दी अनुवाद
पूर्ण हुआ।
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