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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा मान्यता है-सांसारिक क्लेश और राग आदि, मानव जीवन को न सिर्फ कलुषित बना देते हैं, बल्कि उसे सन्ताप भी देते हैं। सांसारिक गृह, उसे कारागार सा लगता है, और जागतिक मोह, उसे पाद-बन्धन जैसा अनुभूत होता है। इन सारी विषमताओं, कुण्ठाओं और संत्रासों से उसे तभी छुटकारा मिल पाता है, जब वह, सर्व शक्तिमान् के साथ सादृश्य स्थापित कर ले, या फिर उससे तादात्म्य बना ले। वैदिक स्तुतियों से लेकर आधुनिक दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप विश्लेषण तक, धर्म का सारा रहस्य, संस्कृत साहित्य में परिपूर्ण रूप से स्पष्टतः व्याख्यायित होता रहा है । वेदों में, आर्यधर्म के विशुद्ध रूप की विवेचना है । कालान्तर में, इस धर्म और दर्शन की जितनी शाखा-प्रशाखाएं उत्पन्न हुईं, विकसित हुई, नये-नये मत उभरे, उन सबका यथार्थ स्वरूप संस्कृत साहित्य में देखा-परखा जा सकता है। संस्कृत साहित्य के धार्मिक वैशिष्ट्य का यह महत्त्व, मात्र भारतीयों के लिये ही नहीं है, अपितु पश्चिमी देशों के लिये भी, यह समान महत्त्व रखता है। पश्चिमी विद्वानों ने, संस्कृत साहित्य का, धार्मिक दृष्टि से जिस तरह अनुशीलन किया, उसी का. यह सुफल है कि वे 'तुलनात्मक पुराण साहित्य' (कम्परेटिव माइथालॉजी) जैसे एक अधुनातन शास्त्र को आविष्कृत कर सके । सारांश रूप में, यही कहा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य, एक ऐसा विशाल स्रोत है, जिससे प्रवाहित हुई विभिन्न धर्म सरिताओं ने मानवता के मन-मस्तिष्क के कोने-कोने को अपनी सरस्वती से रसवान् बनाकर पाप्यायित कर डाला । संस्कृत साहित्य ने, संस्कृति की जो अनुपम विरासत भारत को दी है, उसे कभी विस्मत नहीं किया जा सकता है । संस्कृत के काव्यों में भारतीयता का अनुपम गाथा-गान सुनाई पड़ता है, तो संस्कृत नाटकों में उसका नाट्य और लास्य भी अपनी कोमल कमनीयता में प्रस्तुत हुआ है । त्याग की धरती पर अंकुरित और तपस्या के प्रोज से पोषित आध्यात्मिकता, तपोवनों, गिरिकन्दरामों में संवधित होती हुई, जिस संस्कृति का स्वरूप निर्धारण करती रही, उसी का सौम्य दर्शन तो वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, माघ, बाण और दण्डी आदि के काव्यों में देखकर हृदयकलिका प्रमुदित/प्रफुल्लित हो उठती है । संस्कृत का साहित्यिक मस्तिष्क कभी भी सङ्कीर्ण नहीं रहा है । उसके विचार, किसी भी सीमा रेखा में संकुचित न रह सके । समाज के विशुद्ध वातावरण में विचरण करते हुए उसके हृदय को सामाजिक दुःख-दर्दो ने स्पर्श कर लिया, तो वह दीन-दुःखियों की दीनता पर चार आँसू बहाये बगैर न रह सका। सहज सुखी जीवों के भोग-विलासों पर वह रीझरीझ गया । उसका हृदय सहानुभूति से स्निग्ध और द्रवित बना ही रहा । फलतः, संस्कृत साहित्य में, भारतीय संस्कृति का एक ऐसा निखरा स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, जिसमें आध्यात्मिक विचारों के द्योतक मूल्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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